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संपादकीय

न "सूचना का अधिकार", न "सूचित होने का अधिकार", फिर आमजन को कैसे मिलेगी सूचना?

November 07, 2014 09:32 AM

चंडीगढ, संजय मिश्रा:
चंडीगढ़ कंज्यूमर फोरम ने 27 अक्टूवर 2014 के अपने फैसले में "सूचना के अधिकार" एवं "सूचित होने के अधिकार" दोनों को दरकिनार करते हुए शिकायतकर्ता के शिकायत को ही खारिज कर दिया जिससे एक सवाल खड़ा हो गया है कि ऐसी स्थिति में आमजन उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा  2(i)(o) में वर्णित सेवा या सुविधा "समाचार या सूचना का संचयन/ एकत्रीकरण " कैसे हासिल करेगा।
"जानने का हक़"- इतिहास एवं कानूनी पहलु :
भारतीय संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार :
आज के दौर में लोगों के प्रतिदिन के जीवन में "सूचना" बड़ा ही महत्वपूर्ण हो गया है।  1975 में राजनारायण के केस में सर्वोच्च न्यायालय ने इस "जानने के हक़" को एक आकार देने की कोशिश की और कहा- जनता को सरकार की हर सच्चाई जानने का हक़ है कि सरकार उनके पैसे को कैसे खर्च कर रहा है, जानने का हक़ भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 में वर्णित मौलिक अधिकार "बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" से सम्बंधित है क्योंकि जबतक आमजन के पास सूचना नहीं होगी वो अपने अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता का उपयोग नहीं कर सकता है ।
उपभोक्ता कानून के तहत एक उपभोक्ता अधिकार :
1986 में जब उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम पारित किया गया तो इसमें भी उपभोक्ता को जानने का हक़ दिया गया, क्योंकि जबतक उपभोक्ता के पास किसी भी सेवा या सुविधा (जिसे वो लेना चाहता है) के सम्बन्ध में पूरी जानकारी नहीं होगी तबतक वो अपने "चुनने के अधिकार" का समुचित उपयोग नहीं कर सकता । अधिनियम की धारा 6 में उपभोक्ता को- सुने जाने का अधिकार, शिकायत निवारण का अधिकार, एवं सूचित होने का अधिकार, दिया गया है। लेकिन ये दुर्भाग्य ही है कि 1986 से लेकर आज तक उपभोक्ता को "सूचित होने का अधिकार" नहीं मिला। लोगों की शिकायतें दफ्तरों में महीनों, सालों लंबित पड़े रहते थे, उन शिकायतों का क्या हुआ और कब तक में उनका निपटारा होगा कुछ भी सूचना नहीं मिलती थी। दफ्तरों के चक्कर मार—मार कर कितनों के जूते घिस गए लेकिन न तो आमजन सूचित किये गए, न ही उनके शिकायत में उनको सुना गया और न ही उनके शिकायत का निवारण किया गया। उपरोक्त सभी उपभोक्ता अधिकार फाईलों में दम तोड़ते रहे। जिनके पास पैसे थे वो दफ्तर के बाबुओं एवं चपरासियों की सेवा उन्हें रिश्वत देकर, लेते रहे। उपभोक्ता क़ानून को अतिरिक्त उपचार का भी अधिकार दिया गया जिसके तहत किसी अन्य क़ानून के तहत ली जाने वाली सेवा या सुविधा अगर आपको नहीं मिली है तो उसकी शिकायत यहाँ करके वांछित सेवा के साथ हानि एवं अन्याय का मुआवजा भी पा सकते है।   
सूचना अधिकार क़ानून तहत एक कानूनी अधिकार :
2005 में जानने के हक़ को "सूचना अधिकार अधिनियम" के नाम से पारित किया गया, इसके द्वारा आमजनों को दो मैसेज दिया गया कि आपको अधिकारी सूचित नहीं करते तो कोई बात नहीं अब इस क़ानून के तहत आप सूचना मांगो और अब आप सूचित जरूर होगे वो भी 30 दिनों के अंदर अंदर।  2. अब आपने अपने काम या शिकायत से सम्बंधित सूचना के लिए दफ्तर के बाबू या पिअन की सेवा नहीं लेना है बल्कि क़ानून के तहत फीस भरकर पीआईओ (लोक सूचना अफसर) की सेवा लीजिये और वो आपके काम या शिकायत के बारे में पूरी जानकारी देंगे, लेकिन अधिकारियों के रवैये में ज्यादा बदलाव नहीं आया। अधिकारी सूचना देते ही नहीं थे या देने में काफी आनाकानी करते थे। चक्कर लगवाने का सिलसिला खत्म नहीं हुआ।  सूचना आयुक्त जो की किसी न किसी विभाग के ही सेवानिवृत अधिकारी होते है, ने भी अफसरों को कुछ जुर्माना तो किया लेकिन अधिकतर केसों में जुर्माने से उसे बचाते रहे लेकिन आमजन को फिर भी देरी, या अन्याय के लिए कोई मुआवजा नहीं मिलता था।
सूचना आयोग के कार्यकलापों से नाखुश आमजन फिर से अतिरिक्त उपचार लेने के लिए कंज्यूमर फोरम आने लगे। देश के कुछ फोरम ने सूचना को उपभोक्ता क़ानून में वर्णित सेवा/ सुविधा से जोड़कर सूचना अधिकार आवेदक को मुआवजा भी दिलवाया तो कुछ फोरम ने इसे सेवा या सुविधा मानने से इंकार करके शिकायत को खारिज कर दिया।
क्या था मामला जो चंडीगढ़ फोरम में सुनवाई के लिए आया था
पंजाब सरकार द्वारा बनाये गए सूचना संग्रहण केंद्र पर शिकायतकर्ता से एक फॉर्म भरने के लिए सरकार द्वारा तय की गई फीस रुपया 15 की बजाए रुपया 50 की वसूली की गई जिसकी शिकायत विभाग के उच्चाधिकारी को 6-8-2013 को भेजी गई। जब एक महीने तक कोई जवाब नहीं आया तो शिकायतकर्ता ने अपने शिकायत की स्थिति जानने के लिए सूचना अधिकार के तहत 9-9-2013 को सूचना मांगी जो की नहीं मिली। पुनः यही सूचना 29-11-2013 को सूचित होने के अधिकार के तहत मांगी गई, लेकिन नहीं मिली। जनवरी 2014 में नोटिस भेजने के बाद भी जब सूचना नहीं मिली तो 28-2-2014 को चंडीगढ़ कंज्यूमर फोरम में शिकायत देकर मांग की गई की हमारा सूचना का अधिकार और सूचित होने का अधिकार दोनों का हनन हुआ है और दोनों में से किसी एक के तहत वांछित सूचना दिलवाई जाए एवं प्रतिपक्ष को उपभोक्ता अधिकार हनन के लिए जुर्माना भी किया जाए।     
अनसुलझे कानूनी सवाल :
फोरम से नोटिस जारी होने के बाद प्रतिवादी ने जवाब दाखिल कर कहा कि शिकायतकर्ता सूचित होने का अधिकार नहीं मांग सकता और अगर सूचित होने का अधिकार नहीं मिला तो इसके लिए प्रतिपक्ष को जिम्मेवार भी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि उपभोक्ता क़ानून में इसका कोई प्रावधान नहीं है। फोरम ने शिकायत संख्या CC/139/2014 को पूर्णतः ख़ारिज कर दिया और कहा कि माननीय उपभोक्ता आयोग चंडीगढ़ के आदेश दिनांक 16-7-2012 के अनुसार सूचना अधिकार के शिकायत पर फोरम का क्षेत्राधिकार नहीं है। जबकि सूचित होने के अधिकार पर कुछ भी नहीं कहा गया। हालांकि इस आदेश की अपील चंडीगढ़ उपभोक्ता आयोग में की जायेगी लेकिन इस फैसले के बाद एक विवाद जरूर उत्पन्न हो गया है कि अगर सूचित होने का अधिकार नहीं, सूचना का अधिकार भी नहीं तो उपभोक्ता क़ानून में सेवा की परिभाषा में वर्णित "समाचार या सूचना का संचयन/ एकत्रीकरण" को आमजन कैसे हासिल करेगा।

 
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