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संपादकीय

भारतीय संविधान–आम जनता के साथ एक सुनियोजित और संगठित धोखाधड़ी

January 10, 2015 08:42 PM

मनीराम शर्मा
हमारा नेतृत्व भारतीय संविधान की भूरी-भूरी प्रशंसा करता है और जनता को अक्सर यह कहकर गुमराह करता रहता है कि हमारा संविधान विश्व के विशाल एवं विस्तृत संविधानों में से एक होने से यह एक श्रेष्ठ संविधान है| दूसरी ओर इसके निर्माण के समय ही इसे शंका की दृष्टि से देखा गया था|
डॉ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में दिंनाक 19.11.1949 को संविधान सभा की बैठक संपन्न हुई| इस सभा में संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के श्री सेठ दामोदर स्वरुप ने बहस के दौरान कहा कि सामान्यतया सदन के सदस्य मुझ जैसे व्यक्ति को हमारे परिश्रम के सफलतापूर्वक पूर्ण होने पर संतुष्ट होना चाहिए था| किन्तु श्रीमानजी मुझे इस क्षण अनुमति प्रदान करें कि जब मैं इस सदन में संविधान पर विचार व्यक्त कर रहा हूँ तो किसी संतोष के स्थान पर मुझे निराशा होती है| वास्तव में मुझे लग रहा है कि मेरा हृदय टूट रहा है और मुझे लकवा हो रहा है| मुझे यह लग रहा है कि ब्रिटिश शासन यद्यपि दो वर्ष पूर्व समाप्त हो गया है किन्तु इस देश और निवासियों का दुर्भाग्य है कि इस परिवर्तन के कारण उनकी स्थिति में लेशमात्र भी सुधार नहीं हुआ है| मुझे अंदेशा है कि आम जनता अपने लिए किसी सुधार के स्थान पर इस राजनैतिक परिवर्तन से अपनी स्थिति में और खराबी का संदेह कर रही है| वे यह समझने में असमर्थ हैं कि इसका अंत कहाँ होगा| वास्तव में आम आदमी, जिसके नाम से जो संविधान बनाया गया है और पारित होगा, इसमें मात्र निराशा और अपने चारों ओर अन्धेरा ही देखता है|
श्री सेठ ने आगे कहा कि हमारे कुछ साथी यह सोचते हैं कि आम व्यक्ति की स्थिति में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं देता क्योंकि ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाये गए कानून अभी लागू हैं| उनका विश्वास है कि भारतीय संविधान अब तैयार है और आम व्यक्ति यह महसूस करेगा कि अब वे निश्चित रूप से प्रगति पथ पर हैं| किन्तु मैं कटु सत्य को आपके समक्ष रखने के लिए क्षमा चाहता हूँ| इस देश के लोग इस संविधान के पूर्ण होने और लागू होने पर भी संतुष्ट या प्रसन्न नहीं होंगे क्योंकि इसमें उनके लिए कुछ भी नहीं है| आप प्रारम्भ से अंत तक इसमें कहीं भी गरीब के लिए भोजन, भुखमरी, नंगे और दलितों के लिए कोई प्रावधान नहीं पाएंगे| इसके अतिरिक्त यह कार्य या रोजगार की कोई गारंटी नहीं देता| इसमें न्यूनतम मजदूरी, जीवन निर्वाह भत्ता के भी कोई प्रावधान नहीं हैं| इन परिस्थितियों में यद्यपि यह संविधान विश्व का सबसे बड़ा और भारी तथा विस्तृत संविधान हो सकता है, यह वकीलों के लिए स्वर्ग है व भारत के पूंजीपतियों के लिए मैगना कार्टा है किन्तु जहां तक गरीबों और करोड़ों मेहनतकश, भूखे और नंगे भारतीयों का सम्बन्ध है उनके लिए इसमें कुछ भी नहीं है| उनके लिए यह एक भारी ग्रन्थ और रद्दी कागज के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है| यह बात अलग है कि हम इस तथ्य को स्वीकार करते हैं या नहीं, किन्तु हमें यह बात स्वीकार करनी पड़ेगी कि यदि हम आम व्यक्ति के विचारों की अनदेखी करते हैं तो भी बड़े लोगों के मत का ध्यान रखना पडेगा| भारतीय संसद के अध्यक्ष ने कहा है कि बनाये गए संविधान में भारतीय मानसिकता की बिलकुल भी परछाई नहीं है और यह उसके ठीक विपरीत है| कांग्रेस पार्टी के महासचिव श्रीशंकर राव देव के अनुसार यदि इस पर जनमत करवाया जाये तो इसे अस्वीकार कर दिया जायेगा| इस प्रकार यह कैसे कहा जा सकता है कि जनता इससे संतुष्ट होगी| यह स्पष्ट है कि जिन लोगों ने संविधान का निर्माण किया है वे सचे अर्थों में आम जनता के प्रतिनिधि नहीं हैं| संविधान निर्माता मात्र 14% भारतीय लोगों के प्रतिनिधि हैं| यह एक कटु सत्य है| जो लोग हम यहाँ इस सदन में जनता के प्रतिनिधि के तौर पर इकठे हुए हैं राजनैतिक पार्टीबाजी जैसे विभिन्न कारणों से अपने कर्तव्यों के पालन में विफल हैं | इस कारण से भारत के लोग जिस प्रकार सरकार परिवर्तन के निराश हैं ठीक उसी प्रकार इस संविधान से भी निराश हैं| यह संविधान इस देश में स्थायी तौर पर कार्य नहीं कर सकता| हम पाते हैं कि इस संविधान में कुछ बातें और सिद्धांत यथा – आम मतदान और संयुक्त मतदाता, अस्पृश्यता निवारण जैसे अच्छे हैं| किन्तु जहां तक सिद्धांतों का प्रश्न है वे बिलकुल ठीक हो सकते हैं फिर भी यह देखने योग्य है कि उन्हें व्यवहार में किस प्रकार अमल में लाया जाये| संविधान में मूल अधिकारों का उल्लेख एक महत्वपूर्ण बात है लेकिन क्या हमें इस संविधान के माध्यम से वास्तव में कोई मूल अधिकार मिले हैं|
श्री सेठ ने आगे कहा कि मैं जोर देकर कह सकता हूँ कि मूल अधिकार दिया जाना मात्र एक झूठ है| ये एक हाथ से दिए गए हैं और दूसरे हाथ से ले लिए गए हैं| हमें स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि वर्तमान में लागू कानूनों के विषय में मूल अधिकारों की गारंटी नहीं है और अपमानकारी प्रकाशन, न्यायालयी अवमानना पर सरकार भविष्य में भी कानून बना सकती है| इसके अतिरिक्त संगठन बनाने या एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के अधिकार का सम्बन्ध है, सरकार को जनहित की आड़ में इन अधिकारों को छीननेवाले कानून बनाने का अधिकार रहेगा जिससे मूल अधिकार दिया जाना मात्र एक छलावा रह जाता है| ठीक इसी प्रकार सम्पति सम्बंधित अधिकार भी भारत सरकार अधिनियम,1935 के प्रावधान के समान ही है| परिणामत: सम्पति का राष्ट्रीयकरण असंभव होगा और जनहित में आर्थिक सुधार करने के मार्ग में कई बाधाएं होंगी|
एक ओर हम चाहते हैं कि सामजिक ढाँचे को बिना किसी परिवर्तन के बनाये रखा जये और दूसरी ओर गरीबी और बेरोजगारी देश से मिट जाए| ये दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकती| हमारे प्रधान मंत्री ने अमेरिका में कहा था कि समाजवाद और पूंजीवाद दोनों एक साथ नहीं चल सकते, यह आश्चर्य होता है कि वर्तमान स्थिति को किस प्रकार अपरिवर्तित रखा जा सकता है कि पूंजीवाद बना रहे और जनता की गरीबी और बेरोजगारी मिट जाए| ये दोनों बातें बेमेल हैं| अत: यह महसूस किया जा रहा कि भारत के लोगों की भूख, गरीबी और शोषण ठीक उसी प्रकार जारी रहेगी जैसे आज है| यद्यपि आजकल हमारे देश में सहकारिता की चर्चाएँ जोरों पर हैं लेकिन नीतिनिदेशक तत्वों में ऐसा कोई सन्देश नहीं है| शब्दजाल के आवरण में गोलमाल निर्देश देना ऐसी व्यवस्था स्थापित करने से बिलकुल भिन्न है| फिर भी कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष हमें दिलाशा दिलाना चाहते हैं कि देश में पांच वर्ष में ही वर्गहीन समाज स्थापित हो जायेगा| मेरे जैसे एक सामान्य व्यक्ति के लिए यह समझना कठिन है कि इन दोनों कथनों का किस प्रकार समाधान किया जाये कि एक ओर हम समाजवाद से घृणा करते हैं और यथा स्थिति चाहते हैं तथा दूसरी ओर शोषक वर्ग का संरक्षण करते हुए वर्गहीन समाज स्थापित करना चाहते हैं| मैं नहीं समझता कि ये दोनों विरोधाभासी उद्देश्य किस प्रकार प्राप्त किये जा सकते हैं| कार्यपालिका और न्यायपालिका के अलग होने की मांग भी कांग्रेस पार्टी के समान ही पुरानी है| किन्तु इस संविधान में कार्यपालिका और न्यायपालिका को यथा शीघ्र अलग करने की ऐसी कोई सुनिश्चित योजना या पर्याप्त प्रावधान नहीं है| राज्यों की स्थिति देखें तो स्पष्ट होता है की जागीरदारी प्रथा के उन्मूलन के लिए कोई निर्णय नहीं लिया गया है| परिणामत: राज्यों के करोड़ों किसान जागीरदारों के गुलाम बने हुए हैं| इसके अतिरिक्त कृषि श्रमिक साहूकारों के गुलाम बने हुए हैं| इसके साथ साथ हम पाते हैं कि इस संविधान में भारत सरकार अधिनियम,1935 के प्रावधानों से भी कई अत्यंत पिछड़ी और प्रतिगामी बातें हैं| संविधान के प्रारूप में पहले प्रावधान किया गया था कि राज्यपाल मतदाताओं द्वारा सीधा चुना जायेगा| बाद में प्रस्तावित किया गया कि राज्यपाल एक पैनल द्वारा नियुक्त किया जायेगा| किन्तु अब राष्ट्रपति को राज्यपाल नियुक्त करने और उनका कार्यकाल निर्धारित करने की शक्ति दी गयी है| यह ठीक है कि राष्ट्रपति यथा संभव अपने अधिकारों का उचित प्रयोग करेंगे किन्तु यह स्थिति प्रांतीय सरकारों और राज्यपाल के मध्य द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करेगी| यह संभव है कि प्रांतीय सरकार की विचारधारा केंद्र सरकार से भिन्न हो और विचारधाराओं में अंतर से प्रांतीय सरकार और राज्यपाल के मध्य संघर्ष को स्थान मिले| इसके अतिरिक्त राज्यपालों को 1935 के अधिनियम से भी पिछड़े विवेकाधिकार दिए गए हैं| 1935 के अधिनयम में राज्यपालों के लिए व्यक्तिगत निर्णय के अधिकार थे किन्तु उनके लिए मंत्रिमंडल से परामर्श आवश्यक था| किन्तु अब विवेकी शक्तियों के उपयोग के लिए राज्यपालों का मंत्रिमंडल से परामर्श करना आवश्यक नहीं है| इस प्रकार हम देखते हैं कि राज्यपालों की शक्तियां भी आगे बढ़ाने की बजाय पीछे चली गयी हैं| पुनः राष्ट्रपति को भी आपातकाल के नाम से आवश्यकता से अधिक बड़ी शक्तियां दी गयी हैं और केन्द्र को भी प्रान्तों के मामलों में हस्तक्षेप करने की आवश्यकता से अधिक शक्तियां दी गयी हैं| हमारा संवैधानिक ढांचा कहने को तो संघीय है किन्तु जहां तक प्रशासनिक स्वरुप का प्रश्न है यह पूर्णतः ऐकिक है| हम समझते हैं कि कुछ सीमा तक केन्द्रीयकरण आवश्यक है किन्तु अति केन्द्रीयकरण का अर्थ देश में अधिक भ्रष्टाचार फैलाना है|

 
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