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संपादकीय

हम कितने सचेत?

February 02, 2015 04:00 PM

फेस2न्यूज:
आज मशीनीकरण तथा आधुनिक संचार का दौर है। हर व्यक्ति के पास सीमित समय है। चारों ओर है भागमदौड़। फुरसत के क्षण हैं ही नहीं किसी के कर्मो में... इस व्यस्तता भरी जिन्दगी में मीडिया बहुत बड़ा रोल अदा कर रहा है। चाहें वह अच्छे काम हों या बुरे कामों का पर्दाफास। अलग-अलग माध्यमों के रिपोर्टर्स रात्रि काल में भी सर्वेक्षण, समाचारों की खोज में रहते हैं। इसी कड़ी में टीवी चैनल वाले भी किसी से कम नहीं हैं।  

भयानक बीमारियां का इलाज सम्भव है फिर क्यों उस बारे में अनजान हैं? क्यों हम सरकारी काम से खुश नहीं है? और न ही उसे सुधारना चाहते हैं। आज हम सब के पास बेअर्थी फिल्में देखने का समय है। मैच देखने के लिए छहः घन्टे निकाल लेेते हैं। आवारागर्दी के लिए आधी रात तक का समय है। सट्टा लगाने के लिए मोबाइल फोन का दुरूपयोग कर सकते हैं। परन्तु अच्छी बातों के प्रति हम कोई भी सचेत नहीं हो सकते। इस तिस्लिम को तोड़ने की जरूरत से ज्यादा जरूरत आन पड़ी है।


बात करते हैं मीडिया की:
टीवी चलाते ही मशहूरी आती है... पापा मैं कुछ भी कर सकती हूं न। चांद पर भी जा सकती हूं न, ट्रैक्टर भी चला सकती हूं न,... इत्यादि इत्यादि। आज बेटी बचाओ—बेटी पढाओ की आवाज जोरों शोरों से उठाई गई है। पूर्व में बेटियों की भ्रूण हत्या की जाती रही, जो आज भी उस स्तर पर रूकी नहीं जहां ये जन्घय अपराध पूर्ण तौर पर बंद होना चाहिए है। परन्तु हम कितने सचेत हैं? क्या हम सचमुच ही बेटियों को जन्म लेने देते हैं?
थोड़ी देर बाद विज्ञापन आता है.. दो पुलिस वाले एक औरत को बगैर जुर्म के पकड़ने आ जाते हैं पर उसकी सहेली आकर पुलिस वालों को बताती है कि वे बगैर जुर्म और बिना महिला पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकते। यह कानूनी अपराध है। तब पुलिस वाले गर्दन झुकाए वहां से खिसक लेते हैं। क्या महिलाएं इस सम्बन्ध में अच्छी तरह से जागरूक हो चुकी हैं?
फिर थोड़ी देर बाद विज्ञापन आता है कि घर में एक ओर टायलैट बनाएं। पर गांवों में अभी लोग सुबह सवेरे सैर को बाहर खेतों में जाते हैं नित्यक्रिया से निवृत हो आते हैं जबकि औरतों का भी यही क्रम होता है लेकिन हमारे सूझवान लोगों के पास अच्छी बातें न सुनने व न पढने का समय है। पोलियो के खात्मे हेतु जब इस बार एक सज्जन दवाई की बूंदे पिलाने किसी व्यक्ति के घर पहुंचा तो मकान मालिक की ये प्रतिक्रियाएं थी कि यार अमिताभ बच्चन ने कान ही खा रखे हैं... एक रट थी बूंदे पिलाने की। इसी बात पर भौंक भौंक हमारे तो कान पका दिए। बडे शर्म की बात है इस ना मुराद बिमारी को मिटाने के लिए बूथों पर तो चन्द ही बच्चों को लेकर पहुंचते हैं अभिभावक, और शेष के लिए घर घर जाकर दस्तक देनी पडती है। आओ जरा सोचें हम कितने सचेत हैं?
आयोडीन युक्त नमक खाने पर हमेशा बल दिया जाता है लेकिन हमें पता नहीं है कि यह बला क्या है। एडस का नाम आपने सुना है, इससे बचाव के लिए बहुत कुछ प्रचारित, प्रसारित किया जाता रहा है लेकिन बहुतों को पता नहीं कि यह है क्या। कई तो इसे ‘एडीडास’ का विज्ञापन ही समझ बैठते हैं। इसी तरह पुरूष नसबन्दी के प्रति भी लोगों के विचार कुछ अच्छे नहीं कहे जा सकते हैं। आंखे दान- महादान का प्रचार होता रहता है पर इस भ्रम में कि आंखे गई तो जहान गया, से ग्रसित होकर इसके प्रति भी जागरूक नहीं हैं लेकिन सोचने का विषय यह है कि जब तुम स्वंय ही नहीं रहे तो आंखे किस काम की। नए जन्म में नई मिलेगी। भयानक बीमारियां का इलाज सम्भव है फिर क्यों उस बारे में अनजान हैं? क्यों हम सरकारी काम से खुश नहीं है? और न ही उसे सुधारना चाहते हैं। आज हम सब के पास बेअर्थी फिल्में देखने का समय है। मैच देखने के लिए छहः घन्टे निकाल लेेते हैं। आवारागर्दी के लिए आधी रात तक का समय है। सट्टा लगाने के लिए मोबाइल फोन का दुरूपयोग कर सकते हैं। बिना टिकट सफर कर चूना लगा सकते हैं। टैक्स चोरी कर सकते हैं और मीडिया की बातों पर किचड़ फैंक सकते हैं। परन्तु अच्छी बातों के प्रति हम कोई भी सचेत नहीं हो सकते। इस तिस्लिम को तोड़ने की जरूरत से ज्यादा जरूरत आन पड़ी है।

 
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