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संपादकीय

मिलावट का भूत, नीतियों की नहीं नीयत की जरूरत

July 17, 2015 12:27 PM

संतोष गुप्ता
मुझे अचानक याद आ रहा है बचपन का वो दिन जब पहली बार किसी ने दिया-सिलाई की नई डिब्बी खोली तो वो पूरी तरह खाली थी, खोलने वाला छूटते ही बोला, लो जी! इंदिरा गांधी के राज में अब ये बेईमानियां भी चल पड़ी। शायद तब तक आम जनजीवन में ईमानदारी का बोल बाला था। कुछेक प्रतिशत लोग होंगे जो बेईमानी की कमाई करने को बुरा नहीं मानते थे। अन्यथा लोग अक्सर बेईमानी की कमाई करके छप्पन भोज करने की तुलना में भूखों मरना ज्यादा पसंद करते थे। किसी के साथ दो-चार रूपए की ठगी भी व्यक्ति की कई दिन की नींद हराम कर देती थी। किन्तु आज जमाना ही बेईमानी का हो गया है। ईमानदार व्यक्ति को बाहर वाले तो क्या घर वाले भी सिरे का मूर्ख मानने लगते हैं। दस झूठ बोलो या पचास बस 500- 1000 रूपए बनने चाहिए। इस को आज स्मार्टनेस माना जाने लगा है। हमारी इसी बेईमानी की जननी है मिलावट खोरी।
मिलावट खोरी के किस्से सुनने हो तो किसी मिलावट खोर से सुनो, वो भी तब जब कभी वो मूड में हो और सामने वाला उसकी उस मिलावट खोरी के किस्सों पर मजे लेने वाला हो तो फिर भला बात कैसे न जमे। दूध, आटा, दाल, चावल, घी, तेल से लेकर फल सब्जियों तक हर चीज मिलावटी मगर कोई पूछने वाला नहीं। बीस पचास लोग मर जाएं तो सरकारी तंत्र लीपापोती करके बात को किसी ओर नजरिए पर टिका देते हैं। दूध में मलाई कम आ रही है तो नेपकिन पेपर गीला करके डाल दिया। दूध गाढा नहीं तो संघाड़े का आटा है न, घोल देंगे। लालच यहीं पूरा नहीं हुआ तो यूरिया जैसे घातक रसायनों से सिंथेटिक दूध व खोया बनाया व बेचा जाने लगा है।   

मैगी उत्पादकों को तो करोड़ों-अरबों की चपत लगी, जो लगनी ही थी किंतु जिन अधिकारियों ने अपनी डयूटी के प्रति कोताही बरती, उनको जुर्माना क्यों नहीं लगाया जा रहा? उनकी जिम्मेदारी तय करना क्या सरकारों का काम नहीं?

मिलावटी सामान खाते-खाते अब तो हम भारतीयों के दिल और दिमाग भी मिलावटी होते जा रहे हैं, इससे पहले कि और देर हो जाए केन्द्र सरकार को पहल करके इसके खिलाफ तुरन्त कदम उठाने होंगे अन्यथा भारत को वैश्विक शक्ति बनाए जाने का सपना कहीं धूल में ही न मिल जाए।


ताजा उदाहरण मैगी का है। पिछले एक डेढ दशक से बच्चों व उनकी माताओं की पहली पसंद व पहली जरूरत बनी रही मैगी ने उन मासूम बच्चों के स्वास्थ्य का कितना नुक्सान किया होगा, कौन करेगा उसका हिसाब। आज मैगी को जगह—जगह से उठा कर जलाया जा रहा है, अब भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण लोगों को सुरक्षित खाद्य पदार्थ मुहैया करवाने हेतु नए—नए मानक बना रहा है। किन्तु लोगों को सुरक्षित खाद्य पदार्थ मुहैया करवाने हेतु मानक तो पहले भी थे लेकिन उनके तमाम मानकों की सरेआम धज्जियां उड़ाई गई। व्यापारी लोग जब आमजन को सेहतवर्धक के झांसे में जहर बेच रहे थे तब हमारी सरकारें भला लंबी तान कर क्यों सोती रही। अधिकारी वर्ग मोटी -मोटी तनख्वाहें लेकर भी उस जहर बेचने वाले बिजनेस की मोटी कमाई में हिस्सा—पत्ती बनाए व बढाए जाने में मशगूल रहे। मैगी उत्पादकों को तो करोड़ों-अरबों की चपत लगी, जो लगनी ही थी किंतु जिन अधिकारियों ने अपनी डयूटी के प्रति कोताही बरती, उनको जुर्माना क्यों नहीं लगाया जा रहा? उनकी जिम्मेदारी तय करना क्या सरकारों का काम नहीं?
कड़वा सच यह है कि मिलावट खोरी के इस भूत से ऐसे छोटे-छोटे मानकों के जरिए निजात नहीं मिलने वाली। यहां नीतियों की नहीं मात्र सरकार की नीयत की जरूरत है। प्रधानमंत्री यदि चुनावों के समय किया गया सुषासन का वायदा पूरा करने पर ध्यान केंद्रित कर लें तो भ्रष्टाचार व मिलावट खोरों पर स्वयंमेव अंकुष लग जाएगा। मिलावटखोरों व उसकी निगरानी करने वाले अधिकारियों को बराबर की सजा का हकदार बनाकर ही इसे रोका या कम किया जा सकता है। मिलावटी सामान खाते-खाते अब तो हम भारतीयों के दिल और दिमाग भी मिलावटी होते जा रहे हैं, इससे पहले कि और देर हो जाए केन्द्र सरकार को पहल करके इसके खिलाफ तुरन्त कदम उठाने होंगे अन्यथा भारत को वैश्विक शक्ति बनाए जाने का सपना कहीं धूल में ही न मिल जाए।

 
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