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संपादकीय

पंतजलि द्वारा कैंसर का भय दिखाना क्या नैतिक है? क्या कानून सम्मत है?

March 08, 2016 12:06 PM
राजस्थान पत्रिका के  03 मार्च, 2016 को जयपुर संस्करण के मुखपृष्ठ पर एक विज्ञापन के शीर्षक ने चौंका दिया। पतंजलि की ओर से जारी विज्ञापन में कहा गया है कि 'आपके खाने के तेल में कैंसर कारक तत्वों की मिलावट तो नहीं—जरा सोचिए' यह 'जरा सोचिये', जरा सी बात नहीं, बल्कि भयानक बात हो सकती है और उपभोक्ताओं के विरुद्ध भयानक षड़यंत्र हो सकता है? लोगों को 'जरा सोचिये' के बहाने कैंसर का भय दिखलाकर पतंजलि द्वारा अपना सरसों का तेल परोसा जा रहा है। क्या यह सीधे-सीधे आम और भोले-भाले लोगों को भय दिखाकर अपना तेल खरीदने के लिये मानसिक दबाव बनान नहीं? क्या यह उपभोक्ताओं की मानसिक ब्लैक मेलिंग नहीं है?
दिमांग पर जोर डालिये रामदेव वही व्यक्ति है—जो 5-7 साल पहले अपने कथित योगशिविरों में जोर-शोर से योग अपनाने की सलाह देकर घोषणा करता था कि उनके योग के कारण बहुत जल्दी डॉक्टर और मैडीकल दुकानदार मक्खी मारेंगे। वर्तमान हकीकत सबके सामने है, कोई भी मक्खी नहीं मार रहा। हां यह जरूर हुआ है कि इन दिनों कथित योगशिविरों में योग कम और पतंजलि की दवाईयों का विज्ञान अधिक किया जाता है। इन दिनों शिविरों में योग के बजाय हर बीमारी के लिये केवल पतंजलि की दवाई बतलाई जाती है। जिसका सीधा सा मतलब यही है कि रामदेव का कथित योग असफल हो चुका है। रामदेव के योग शिविरों में सरकार के योगदान की तेजी के साथ-साथ वृद्धि हो रही है, लेकिन योग निष्प्रभावी हैं, क्यों रागियों और रोगों में तेजी से बढोतरी हो रही है। रामदेव के शिविरों के नियमित कथित योगी भी डॉक्टरों की शरण में हैं, लेकिन बेशर्मी की हद यह है कि अब लोगों को योग के साथ-साथ पतंजलि के उत्पादों के नाम गुमराह करने के साथ-साथ दिग्भ्रमित भी किया जा रहा है। केवल इतना ही नहीं, डराया और धमकाया जा रहा है। विज्ञापनों से जो संदेश प्रसारित हो रहा है, वह यह है कि पतंजलि के अलावा जितने भी तेल उत्पाद हैं, उनमें कैंसर कारक तत्वों की मिलवाट हो सकती है!
यह सीधे-सीधे भारतीय कंज्यूमेबल मार्केट पर रामदेव का कब्जा करने और कराने की इकतरफा मुहिम है, जिसमें केन्द्र और अनेक राज्यों की सरकार के साथ-साथ, बकवासवर्ग समर्थक मीडिया भी शामिल है। मेरा मानना है कि अब आम व्यक्ति को जरा सा नहीं, बल्कि गम्भीरता से इस बात पर भी गौर करना चाहिये कि पहले योग के नाम पर और अब उत्पादों की शुद्धता के नाम पर जिस प्रकार से उपभोक्ताओं को गुमराह और भयभीत किया जा रहा है, उसका लक्ष्य और अंजाम क्या हो सकता है? यह भी विचारणीय है कि रामदेव किस विचारधारा के समर्थक हैं?
अन्त में सबसे महत्वपूर्ण बात : कानूनविदों को इस बात का परीक्षण करना चाहिये कि उपभोक्ता अधिकार संरक्षण अधिनियम तथा विज्ञापन क़ानून क्या इस प्रकार से उपभोक्ताओं को भ्रमित और गुमराह करके या डराकर विज्ञापन के जरिये कैंसर का भय परोसा जाना क्या नैतिक रूप से उचित है? क्या ऐसा विज्ञापन करना कानून सम्मत है?  
                                                                           लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
 
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