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संपादकीय

हम कितने जागरूक हैं?

July 04, 2016 04:36 PM

आज का दौर मशीनीकरण तथा आधुनिक संचार का दौर है। हर व्यक्ति के पास सीमित समय है। चारों ओर भागमदौड़ है। फुरसत के क्षण हैं ही नहीं उनके कर्मो में... इस व्यस्तता से भरी जिन्दगी में मीडिया बहुत बड़ा रोल अदा कर रहा है। चाहें वह अच्छे काम हों या बुरे कामों का पर्दाफास। अलग- अलग माध्यम से रिपोर्टर्स रात्रि काल में भी सर्वेक्षण, समाचारों की खोज में रहते हैं।  

सूझवान लोगों के पास अच्छी बातें न सुनने व न पढने का समय है। बडे शर्म की बात है इस ना मुराद बिमारी को मिटाने के लिए बूथों पर तो चन्द ही बच्चों को लेकर पहुुंचते हैं अभिभावक आंखे दान, खून दान— महादान का प्रचार होता रहता है लेकिन लोग इसके प्रति भी इतने जागरूक नहीं हैं 


टीवी चलाते ही विज्ञापन आता है... पापा मैं कुछ भी कर सकती हूं न। चांद पर भी जा सकती हूं न, ट्रैक्टर भी चला सकती हूं न,... इत्यादि। आज बेटियों की भ्रूण हत्या की जा रही हो परन्तु हम कितने सचेत हैं? क्या हम सचमुच ही बेटियों को जन्म लेने देते हैं?
थोड़ी देर बाद विज्ञापन आता है... दो पुलिस वाले एक औरत को बगैर जुर्म के पकड़ने आ जाते हैं पर उसकी सहेली आकर पुलिस वालों को बताती है कि वे बगैर जुर्म और बिना महिला पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकते। यह कानूनी अपराध है। तब पुलिस वाले गर्दन झुकाए वहां से खिसक लेते हैं। क्या महिलाएं इस सम्बन्ध में अच्छी तरह से जागरूक हो चुकी हैं?
फिर थोड़ी देर बाद विज्ञापन आता है कि घर में शौचालय बनवाएं, विद्याबालन का नारा 'जहां शौच वहां शौचालय'। पर गांवों में अभी लोग सुबह सवेरे सैर को बाहर खेतों में जाते हैं नित्यक्रिया से निवृत हो आते हैं जबकि औरतों का भी यही क्रम होता है लेकिन हमारे सूझवान लोगों के पास अच्छी बातें न सुनने व न पढने का समय है। पोलियो के खात्मे हेतु जब इस बार एक सज्जन दवाई की बूंदे पिलाने किसी व्यक्ति के घर पहुंचा तो मकान मालिक की ये प्रतिक्रियाएं थी कि इस बार तो यार अमिताभ बच्चन कान ही खा गया... एक ही रट थी बूंदे पिलाने की। इसी बात पर भौंक—भौंक हमारे तो कान पका दिए। बडे शर्म की बात है इस ना मुराद बिमारी को मिटाने के लिए बूथों पर तो चन्द ही बच्चों को लेकर पहुुंचते हैं अभिभावक और शेष के लिए घर—घर जा कर दस्तक देनी पडती है। आओ जरा सोचें हम कितने सचेत हैं?
आयोडीन युक्त नमक खाने पर हमेशा बल दिया जाता है लेकिन हमें पता नहीं है कि यह बला क्या है। एडस का नाम आपने सुना है लेकिन बहुतों को पता नहीं कि यह है क्या। इसी तरह आंखे दान, खून दान— महादान का प्रचार होता रहता है पर इस भ्रम में आंखे गई तो जहान गया से ग्रसित लोग इसके प्रति भी इतने जागरूक नहीं हैं लेकिन सोचने का विषय यह है कि जब तुम स्वंय ही नहीं रहे तो आंखे किस काम की। नए जन्म में नई मिलेगी। भयानक बीमारियां का इलाज सम्भव है फिर क्यों उस बारे में अनजान हैं? क्यों हम सरकारी काम से खुश नहीं है? और न ही उसे सुधारना चाहते हैं। आज हम सब के पास बे—अर्थी फिल्में देखने का समय है। मैच देखने के लिए घन्टों निकाल लेेते हैं। आवारागर्दी के लिए आधी रात तक का समय है। सट्टा लगाने के लिए मोबाइल फोन का दुरूपयोग कर सकते हैं। बिना टिकट सफर कर चूना लगा सकते हैं। टैक्स चोरी कर सकते हैं और मीडिया की बातों पर किचड़— फैंक सकते हैं। परन्तु मीडिया की अच्छी बातों के प्रति हम कोई भी सचेत नहीं हो सकते। यह कितने अफसोस की बात है।

 
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