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संपादकीय

अर्थ न पकड़ा व्यर्थ में उलझे

August 09, 2016 11:14 AM

आर एल गोयल
नैतिक मूल्यों से हम सब दूर होते जा रहे हैं। या यूं कहूं कि हमारे जीवन में नैतिक मूल्यों का घोर पतन हुआ है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। हमारे अवतारों, पीरों पैंगबरों, ऋषि—मुनियों ने हमें क्या समझाने का, क्या बताने का प्रयत्न किया और हम क्या समझते चले गए/चले जा रहे हैं। जो उद्देश्य, जो संदेश वे देना चाहते रहे उन्हें पकड़ने की बजाए हम उपदेश देने वालों को ही पकड़ते चले गए। या ये सब कुछ हमारे तथाकथित बाबाओं, पंडितो—पुरोहितों द्वारा हमें समझा दिया गया, पकड़ा दिया गया। जिस का परिणाम विपरित होता चला गया। श्री राम से हमें मर्यादा के रास्ते पर चलने का संदेश मिला लेकिन उनकी मर्यादा को दरकिनार कर हम राम को पकड़ कर बैठ गए। हमने कभी सोचा भी नहीं कि श्री राम के सिंद्धात क्या थे और जिन जीवन मूल्यों को लेकर उन्होंने लीला रची, जिन मर्यादाओं की वजह से वे मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाए उसको हमने नजर अंदाज कर दिया। स्वयं का मुल्याकंन तो करना ही होगा। महापंडित, उच्चकोटि के विद्वान, महा बलशाली रावण की मात्र एक भूल के लिए उसे ऐसा दण्ड मिला कि सब कुछ सर्वनाश हो गया, जिसे आज तक हम दण्डात्मक प्रतीक के रूप में मनाते आए हैं। तो खुद के नैतिक मूल्यों और भूल व गलतियों का तुलनात्मक अध्यन तो अनिवार्य हो जाता है। और अध्यन उपरांत यदि सुधार नहीं होगा तो दण्ड, पुरस्कार से अधिक होना स्वाभाविक है। आज मर्यादाएं क्षीण होती जा रही हैं, जरूरत है तो राम की बजाए राम के संदेशों की तरफ फोकस करने का।
श्री कृष्ण को भजते तो सभी हैं लेकिन समझने का प्रयत्न बहुत ही कम लोगों ने किया। कृष्ण को जो सर्वप्रिय था उसको नजर अंदाज कर दिया। कृष्ण के बड़े—बड़े मंदिर तो खड़े कर दिए लेकिन हर सनातनी जिसे माता मानता आया है उसी की उपेक्षा किए बैठा है। आज भारत वर्ष में जितने श्री कृष्ण के मंदिर हैं उतनी ही गौशालाएं होती तो समझ में आता कि हम श्री कृष्ण को भलीभांति समझ पाएं हैं। हम सब की माता, कृष्ण की प्रिय गौमाता लावारिसों की तरह घूम रही है। निर्दयी लोगों द्वारा बेरहमी से काटी जा रही है और हम कृष्ण भक्ति का ढोंग कर रहे हैं। तथाकथित लोगों द्वारा दिखाई परिपाटी पर चल रहे हैं। जिस मकसद के लिए गीता कही गई, उस ओर कतई ध्यान न देते हुए बस यांत्रिक तरीके से पढ़ लेना ही उद्देश्य मान बैठे। मनुष्य द्वारा ही पैदा किए जातिवाद के दंश को झेल रहे हैं। श्री कृष्ण ने जो उपदेश दिए उन सबको दरकिनार कर छोड़ा है। जरूरत तो अर्थ को पकड़ने की है यानि मर्यादा पुरूषोत्म की तरह अपने कत्र्तव्यों को, चाहे वो कितना भी कठिन क्यों न हो, खुशी—खुशी व बिना किसी शिकवा— शिकायत के निभाना और श्री कृष्ण की तरह गरीब व लाचार चाहे व पशु हो या मानव को सरंक्षण प्रदान करके उच्च नैतिक मूल्य स्थापित करना ना कि ईश्वर रूपी मात—पिता को उपेक्षित कर मानवीय संवेदनाओं की हत्या करके नाम जपना। जबकि प्रथम पूज्य श्री गणेश जी ने पूरी धरती नापने की बजाए माता—पिता के इर्द—गिर्द चक्कर काट कर पृथ्वी भ्रमण पूरा करके उन्हें सबसे उंचा बताने का संदेश दिया।

 
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