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संपादकीय

दीवाली छूती है जीवन के हर पहलू को

October 23, 2016 09:19 AM

मदन गुप्ता सपाटू, ज्योतिर्विद, चंडीगढ़
भारतीय संस्कृति में पर्वों, त्योहारों एवं तिथियों को इस तरह से पिरोया गया है कि हर दिन एक उत्सव की तरह हो और  दैनिक जीवन में प्रसन्नता, सुख समृद्धि व्याप्त रहे। हर दिन को धर्म, ज्योतिश, नियमों, सस्कारों से ऐसे जोड़ दिया गया है कि विद्वान हो या अशिक्षित,त्योहारों का महत्व समझ आ जाए और सामर्थ्यानुसार उसे मना भी ले। दीवाली का संबंध भी ऋतु परिवर्तन से है जिसे कृशि पर्व भी माना जाता है। शरद् ऋतु के आगमन पर खरीफ की फसल किसान के घर आ जाती है और नए अन्न का भोग लक्ष्मी जी को लगा कर दीपमाला की जाती है। कालन्तर में दीवाली के साथ अनेकों अन्य प्रसंग , तथ्य, ऐतिहासिक घटनाएं जुड़ती चली गईं और दीवाली का स्वरुप बदलता चला गया। 2016 जाते जाते चीनी माल का विरोध दीवाली पर वहां बनी मूर्तियों, पटाखे, साज सज्जा की वस्तुएं , विद्युत उपकरण आदि न खरीद कर किया जा रहा है और शहीदों को श्रद्धांजलि देते समय 1962 का वह गीत भी याद आ जाता है-  ‘जब देश में थी दीवाली, वो खेल रहे थे होली, जब हम बैठे थे घरों में , वो झेल रहे थे गोली..........’
आज कई शहीदों के परिवारों में ऐसी भावना भी तैर रही होगी- एक वो भी दीवाली थी , एक ये भी दीवाली है, उजड़ा हुआ गुलशन है रोता हुआ माली है...... 
दीपावली हमारे देश का प्रमुख पर्व है जो हर कोने में हर्शोल्लास से मनाया जाता है। इसका हर वर्ग, हर धर्म, जाति व समुदाय से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से जुड़ाव है। एक दीये से दूसरा दीया जलाया जाता है और ‘जोत से जोत जलाते चलो , प्रेम की गंगा बहाते चलो की भावना ’ प्रसारित होती है। फूलों, आम के पत्तों, रंगोली आदि से घर सजाए जाते हैं तो प्रकृति भी गली गली उतर आती है। अमावस में पूर्णिमा का आभास होने लगता है।
यह पांच दिनों का पंचपर्व है जिसमें जीवन से जुड़ा दर्शन है और इतिहास है। ़त्रयोदशी से लेकर अमावस तक यह त्योहार जीवन के हर पहलू को छूता है।यदि जीवन ब्रहमा जी के हाथ है तो मृत्यु यम के हाथ। इसी लिए इन दिनों यम की पूजा दीप जलाकर की जाती है। तमसो मा ज्यातिर्गमय की प्रासंगिकता तार्किक रुप में सामने आ जाती है जब हम अमावस के अंधकार में दीप जलाकर अंधेरा दूर करते हैं। जहां त्रयोदशी धन एवं सौंदर्य की तिथि और धन्वंतरी जयंती भी है, तो चतुर्दशी शिव के क्ल्याण से जुड़ी है। दीपावली कालिमा से लालिमा की ओर ले जाने का अवसर है। गोवर्धन पूजा और अन्नकूट हमारे सामाजिक प्रतिबद्धता का प्रतीक है ताकि हमारे समाज में हर वर्ग को भोजन मिले। भाई दूज वर्तमान में भाई बहन के रिश्तों को और मजबूत करने का संदेश देकर उसे पारिवारिक रुप से कार्यान्वित भी करवाता है। और यही नहीं कलयुग अर्थात मशीनों के युग में जब हर आदमी मशीन बन गया है तो एक दिन अनिवार्य रुप से मशीन और मजदूर दोनों को ही आराम देने का प्रावधान बना दिया गया विश्वकर्मा दिवस के रुप में।
व्यापारी नए बही खाते आरंभ करते हैं । वृद्धि , सुख समृद्धि हेतु अपने प्रतिश्ठानों में लक्ष्मी पूजन करवाते हैं।
पौराणिक मान्यता के अनुसार समुद्र मंथन से ही लक्ष्मी जी प्रकट हुई। धन की देवी के रुप में इनकी आराधना दीपाचली में की जाती है। भगवान राम जब अयोध्या लौटै तो अमावस का अंधकार था। उनका मार्ग प्रकाशमय करने के उदेश्य से हर गुजरने वाला मार्ग प्रज्जवलित किया गया था और खुशी प्रकट करने के लिए दीपोत्सव किया गया। तभी से दीपों की आवली की प्रथा आरंभ हो गई। आर्य समाज और सिख धर्म में भी इस दिवस का महत्व और कई कारणों से बढ़ गयज्ञं मुख्य रुप से भगवान राम ,रावण का वध करके जिस रात्रि अयोध्या पहुंचे , उस रात अमावस के कारण अंधकार था। दीपावली संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ है - दीपों की पंक्ति यानी आवली। मार्ग प्रशस्त करने के उदे्श्य से अयोध्या वासियों ने सारे मार्ग पर मिटट्ी के छोटे छोटे दिये जला दिये ताकि रास्ता दिखता रहे। दीपों की इस पंक्ति को दीपावली कहा गया जो बाद में दीवाली बन गया। अर्थात दीपोत्सव । फिर हर वर्श कार्तिक की अमावस्या पर राम का आगमन मनाया जाने लगा और यह उत्सव बन गया दीवाली और पूरा देश प्रकाशमय होने लगा। खुशी प्रकट करने के लिये, कालान्तर में बारुद के आविश्कार होने पर ,पटाखों का भी चलन भी आरंभ हो गया। और आज का इसका स्वरुप प्रकाशोत्सव, पटाखे चलाने, मिठाइयां बांटने, एक दूसरे को उपहार देने का रिवाज बन गया।
इसके अलावा इस दिन लक्ष्मी जी को लाल कमल का फूल अर्पित करना , पूजन करना, दक्षिणावर्ती शंख पूजन भी परिवार व व्यवसाय वृद्धि ,सुख समृद्धि व धनागमन व धन संचय के लिए शुभ माना जाने लगा।
पुराणों के अनुसार, भगवान कृश्ण ने आज के ही दिन नरकासुर का वध किया था जिसने महिलाओं का अपहरण कर रखा था। विश्णु भगवान ने नरसिंह का रुप धारण कर , आज ही हिरण्यकश्यप का वध किया था। इसी दिन समुद्रमंथन के दौरान, लक्ष्मी जी व धन्वंतरि प्रकट हुए थे। धर्मराज युधिश्ठर का राजसूर्य यज्ञ भी इसी दिन संपूर्ण हुआ था।  वर्तमान इतिहास में , 1577 में इसी दिन अमृतसर में स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास हुआ था। यही नहीं , 1619 में इसी कार्तिक अमावस्या पर छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी कारावास मुक्त हुए थे। यही कारण है आज के दिन अमृतसर की दीवाली और विशेश हो गई है। जैन धर्म में यह निर्वाण दिवस कहलाता है। महर्शि दयानंद जी ने आज के ही दिन अवसान लिया था।  स्वामी रामतीर्थ जी का जन्म और परिनिर्वाण दिवस भी आज ही होता है।  अकबर के समय दौलत खाने के सामने दीवाली पर एक लंबे बांस पर बड़ा दीप जलाया जाता था। शाह आलम द्वितीय के शासनकाल में , शाही महल में दीपमाला की जाती थी। मोहनजोदड़ा़े सभ्यता के दौरान खुदाई मंे निकली एक मूर्ति के दोनों हाथों में दीप जलते दिख रहे हैं जो दर्शाता है कि ईसा से 500 साल पहले भी दीवाली पर दिये जलाने की प्रथा थी।
कुछ शरारती तत्वों द्वारा दीवाली से पहले, इतिहास को बदलने और राम तथा अयोध्या के अस्तित्व पर ही प्रशन खड़े किए जा रहें हैं, जिसका विरोध करना पूरे देश का विशय बन सकता है।  आइये हम आपसी वैमनस्य भुला कर दीवाली जैसा त्योहार मना कर सबके जीवन में मिठास भर दें।  

 
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