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संपादकीय

आमजन की समझ से परे है भारतीय न्याय प्रणाली की भूल भूलैया

December 04, 2014 12:25 PM

संजय मिश्रा:
भारतीय न्याय प्रणाली एक ऐसी भूल भूलैया है जिसका पार पाना आमजन के लिए बहुत मुश्किल है। यह प्रणाली बेंजामिन के परामर्श पर ब्रिटिश सरकार ने लागू की थी और जब नेहरू को नैनी जेल में रखा गया तो उन्होंने इस न्याय प्रणाली को जन विरोधी बताते हुए अपना बचाव करने से मना कर दिया था। लेकिन आश्चर्य की बात है कि उन्हीं नेहरू ने सत्ता सुख भोगने के लिए इसी प्रणाली को आगे जारी रखा जो आज तक बदस्तुर जारी है। हालांकि समय समय पर भारत की न्यायपालिका द्वारा उनके शक्तियों के प्रयोग पर प्रश्न चिन्ह उठते रहे हैं। समय समय पर न्यायपालिका और उसके पैरोकार न्यायिक गरिमा का दम भी भरते हैं लेकिन हाल ही में जयललिता को जमानत देने का मामला एक ताज़ा और ज्वलंत उदाहरण है। सोनी सोरी के मामले में न्यायपालिका की रक्षक भूमिका को भी जनता भूली नहीं है। एक साध्वी को हिरासत में दी गयी यातनाओं के जख्म और जमानत से इंकारी भी ज्यादा पुराने नहीं हैं। अहमदाबाद के मजिस्ट्रेट द्वारा मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ वारंट जारी करने का मामला भी 7 दिन के भीतर रिपोर्ट प्राप्त होने के बावजूद भी आज 10 वर्ष से विचाराधीन है। जहां एक तरफ गंभीर बीमारियों से पीड़ित संसारचन्द्र को जमानत नहीं मिलती वहीँ दूसरी और संजय दत्त को उसकी बहन की प्रसव काल में मदद के लिए जमानत देना एवं अन्य कई मौके पर पेरोल पर पेरोल स्वीकार करना गले नहीं उतरता। तरुण तेजपाल के विरुद्ध बिना शिकायत के मामला दर्ज करना और जमानत से तब तक इंकार करना जब तक उसकी माँ की मृत्यु नहीं हो जाती और दूसरी तरफ आम नागरिक की फ़रियाद पर भी रिपोर्ट दर्ज न होना किस प्रकार न्यायानुकूल कहा जा सकता है?   

जब नेहरू को नैनी जेल में रखा गया तो उन्होंने इस न्याय प्रणाली को जन विरोधी बताते हुए अपना बचाव करने से मना कर दिया था। लेकिन आश्चर्य की बात है कि उन्हीं नेहरू ने इसी प्रणाली को आगे जारी रखा जो आज तक बदस्तुर जारी है।


बिग बाजार द्वारा एक उपभोक्ता से सामान की कीमत से 41 रूपये ज्यादा लेने पर उपभोक्ता मंच चंडीगढ़ द्वारा बिग बाजार को 15000 रूपये का जुर्माना करना लेकिन वही दूसरी और पंजाब के सेल टैक्स बैरियर पर फॉर्म भरने की फीस रुपया 15 के बजाय 50 रुपया लेने की शिकायत को ख़ारिज कर देना समझ से पर है। जहां सूचना अधिकार बनाम उपभोक्ता अधिकार पर देश के कई राज्य उपभोक्ता आयोग जैसे कोलकाता, राजस्थान, कर्नाटक आदि नेशनल कमीशन के लार्जर बेंच के फैसले का इन्तजार कर रहे है, वही चंडीगढ़ उपभोक्ता आयोग द्वार अपील का स्वीकार्य 24 नवम्बर, सुनवाई 25 नवम्बर एवं डिसमिस 26 नवम्बर को, आश्चर्य में डालने वाला है। सूचना अधिकार अधिनियम के सेक्शन 21 के तहत लोक सूचना अफसर, प्रथम अपील अधिकारी या सूचना आयुक्त किसी के भी ऊपर कोई निजी शिकायत नहीं की जा सकती है ऐसा आमजन को बताया जाता है वही दूसरी तरफ कर्नाटका उच्च न्यायालय के लोक सूचना अफसर के द्वारा कर्नाटका के सूचना आयुक्त को निजी तौर पर हाईकोर्ट में पार्टी बनाना फिर उस आयुक्त पर सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा एक लाख रूपये का जुर्माना किया जाना भी अद्भुत कहानी है।
सवाल है कि क्या भारतीय कानून के सभी प्रावधान सिर्फ हम बेवकूफ भारतीयों पर ही लागू होते है, हमारी न्याय प्रणाली की कोई जिम्मेवारी नहीं बनती? अगर आज न्यायपालिका हजारों लाखों केसों के बोझ तले दबी हुई है तो इनमे कहीं न कही वो इंजस्टिस (अन्याय) भी है जो आमजन को किसी न किसी न्यायतंत्र से मिली हुई है।

 
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