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संपादकीय

1 प्रतिशत परिवर्तन प्रतिवर्ष किया जाता तो व्यवस्था में 67 वर्ष में 67 फीसदी आ सकता था परिवर्तन

December 09, 2014 12:24 PM

मनीराम शर्मा
भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त शेषन ने एक बार कहा था कि लोकतंत्र के चार स्तम्भ होते हैं और उनमें से साढ़े तीन क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। उसके बाद आगे हुई प्रगति को देखकर वर्तमान का आकलन किया जा सकता है। वैसे भी राजनीति, पुलिस और सेना में हुक्म मानने वाले हाजरियों की जरुरत होती है जो बिना दिमाग का उपयोग किये आदेश मानते रहें। दिमाग लगाने वालों और विरोध करने वालों के लिए वहाँ अलग से उत्पीडन व उपचार केंद्र होते हैं। एक बार मैं जब ग्रामीण क्षेत्र में सेवारत था जहां बिजली, पानी, सडक, और फोन जैसी कोई सुविधा नहीं थी। मैं भाजपा के जिलाध्यक्ष के पास इन समस्याओं को लेकर चला गया तो उन्होंने बताया कि सडक का मंजूर काम तो मैंने ही निरस्त करवाया था क्योंकि वहां की विधायक अन्य पार्टी की है। मुझे उन्होंने यह भी कहा कि आप सडक के लिए क्यों आये हैं आपको चुनाव लड़ना है क्या। मैंने कहा मैं चुनाव लड़ने की तो सपने में भी नहीं सोचता लेकिन ग्रामीण लोगों की परेशानी है। आगे उन्होंने खुलासा किया कि यदि यह सडक बना दी गयी तो बाद में इसकी मरम्मत और टूटी होने की शिकायत लेकर लोग आयेंगे इसलिए आप इसे छोड़ दें। खैर मैंने तो सार्वजनिक निर्माण विभाग के माध्यम प्रस्ताव मंजूर करवा लिया। किन्तु राजनीति का आइना मेरे सामने एकदम साफ़ हो गया था। देश में हर क्षेत्र में विदेशी निवेश और तकनीक का जिक्र किया जाता है किन्तु प्रशासन और न्याय में कभी नहीं। क्या इन क्षेत्रों में सुधार की कोई आवश्यकता नहीं है? यदि निष्ठापूर्वक प्रतिवर्ष 1 प्रतिशत भी परिवर्तन प्रतिवर्ष किया जाता तो यह प्रशासनिक, पुलिस और न्याय व्यवस्था में 67 वर्ष में 67 प्रतिशत परिवर्तन आ सकता था।
देश में कानून और न्याय कितना प्रभावी है इसका मुझे असली अनुमान तब लगा जब पाली जिले में तैनात एक अतिरिक्त मुख्य मजिस्ट्रेट ने बैंक में कार्यरत अपने एक सम्बन्धी की सहायता के लिए मुझसे आग्रह किया। शासन में उच्च प्रशासनिक और न्यायिक पदों पर दागियों को ही लगाया जाता है ताकि उनसे मनमर्जी के काम करवाए जा सकें और यदि वे सत्तासीन की इच्छानुसार नहीं चलें तो उन पर लगे दाग के आधार पर उन्हें हटाया जा सके। देश में खुफिया एजेंसियों का भी देश के लिए कम और राजनैतिक उपयोग ज्यादा होता है| इंदिरा गाँधी ने भी आपातकाल के बाद उसके चुनाव जीतने की स्थिति पर खुफिया एजेंसियों से रिपोर्ट मांगी थी और उस रिपोर्ट के आधार पर ही 77 में चुनाव करवाए गए। अभी हाल ही में मिजोरम में महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर सेना द्वारा बलात्कार की घटानाएं सचित्र प्रकाशित करने पर एक सेना आधिकारी ने कहा कि यह आईएसआई की करतूत है, लेकिन मैंने उनसे यह प्रतिप्रश्न किया कि यदि आईएसआई भारत में आकर ऐसे घिनोने काम करने में सफल हो रही है तो फिर सुरक्षा और खुफिया एजेंसियां क्या कर रही हैं और देश की सीमाओं की सुरक्षा उनके हाथों में कितनी सुरक्षित है। आज भी देश के कुल पुलिस बलों का एक चौथाई भाग ही थानों में तैनात है बाकी तो महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा और बेगार में तैनात है। देश आज भी कुपोषण, शिशु एवं मातृ मृत्यु दर , भ्रष्टाचार में विश्व में उच्च स्थान रखता है।
भारत में सरकारों का काम हमेशा ही गोपनीय रहा है व उसमें कोई जन भागीदारी नहीं रही और ई—गवर्नेंस की बातें ही बेमानी है जब जनता को इन्टरनेट की स्पीड 50 केबी मिल रही है। भारत पाक का 1970 का युद्ध अमेरिका और कनाडा में सीधे प्रसारित किया था। दूर संचार विभाग की भारत में वेबसाइट भी 1970 में तैयार हो गयी थी किन्तु जनता को यह सुविधा बहुत देरी से मिली है। बलिदान देने, मरने या शहीद होने से भी इस संवेदनहीन व्यवस्था में क्या कुछ हो सकता है जब पुलिस ही प्रतिवर्ष दस हजार लोगों को फर्जी मुठभेड़ और हिरासत में मार देती है जबकि अमेरिका में यह 409, जर्मनी में 3 और ब्रिटेन और जापान में यह शून्य है।

 
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