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संपादकीय

उपभोक्ता अदालत की दोहरी मानसिकता पहुँचा रही है उपभोक्ता के हितों को नुकसान

December 19, 2014 11:02 AM

संजय मिश्रा:
चंडीगढ़ उपभोक्ता आयोग ने प्रथम अपील संख्या 252 ऑफ़ 2014 (महाप्रबंधक उत्तर रेलवे बनाम डाक्टर एन के सिंगला) के केस में रेलवे की अपील को ख़ारिज करते हुए उपभोक्ता मंच के फैसलों को बरकरार रखते हुए फैसला दिया कि एसी क्लास का टिकट होने पर और नीचे के क्लास में सफर करने पर उपभोक्ता किराए के अंतर के वापसी का हकदार है।  रेलवे ने दलील दी कि रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल एक्ट 1987 के सेक्शन 15 के तहत कंज्यूमर फोरम में शिकायत की सुनवाई नहीं की जा सकती जिसे आयोग ने सिरे से ख़ारिज कर दिया।
आज के दौर में ये बात सर्वविदित है कि रेलवे अधिनियम के तहत रेलवे की सेवा में कमी की शिकायत कंज्यूमर फोरम में की जा सकती है एवं उस पर भलीभांति सुनवाई करके उपभोक्ता के हितों का ख्याल रखते हुए कंज्यूमर फोरम द्वारा उपभोक्ता को समुचित राहत भी दी जाती है, लेकिन वही दूसरी ओर कंज्यूमर फोरम एवं कंज्यूमर कमीशन सूचना अधिकार आवेदक के साथ अलग रवैया अपनाते हुए उनके शिकायत को ही ख़ारिज कर दे रहे है, ये कहते हुए कि सूचना अधिकार क़ानून में कंज्यूमर फोरम का अधिकारक्षेत्र वर्जित किया हुआ है। चंडीगढ़ उपभोक्ता आयोग ने प्रथम अपील संख्या 363 ऑफ़ 2014 को ख़ारिज करते हुए कहा कि - सूचना अधिकार क़ानून के सेक्शन 23 के मुताबिक किसी कोर्ट में सूचना अधिकार से सम्बंधित शिकायत पर सुनवाई नहीं की जा सकती है। कंज्यूमर फोरम एक कोर्ट है।  
उपभोक्ता अदालत की उपरोक्त दोहरी मानसिकता देश के लाखों उपभोक्ताओं के हितों को नुक्सान पहुंचा रही है।   
रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल एक्ट 1987 के प्रावधान :
सेक्शन 15 - कोई भी "कोर्ट" या "अन्य अधिकारी" इस एक्ट से सम्बंधित विषय पर सुनवाई नहीं करेगा।

राईट टू इंफोर्मेशन एक्ट 2005 के प्रावधान :
सेक्शन 23 - कोई भी "कोर्ट" इस एक्ट से सम्बंधित विषय पर सुनवाई नहीं करेगा।

उपभोक्ता अदालत की दोहरी मानसिकता निम्नलिखित बिंदु पर नजर आती है :

1.    उपरोक्त 1987 के एक्ट में "कोर्ट" एवं अन्य एक्ट के तहत बनाये गए "अन्य अधिकारी" दोनों को शिकायत सुनने से वर्जित कर दिया गया है लेकिन बावजूद इसके कंज्यूमर फोरम रेलवे से सम्बंधित शिकायत को स्वीकार करते है एवं उपभोक्ता को समुचित राहत भी प्रदान करते है। वहीँ दूसरी और 2005 के एक्ट में सिर्फ "कोर्ट" को शिकायत सुनने से वर्जित किया गया है, अन्य एक्ट के तहत बनाये गए "अन्य अधिकारी" या किसी ट्रिब्यूनल को नहीं, फिर भी कंज्यूमर फोरम सूचना अधिकार से सम्बंधित शिकायत को ख़ारिज कर दे रहे है।
2.     रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल एक्ट 1987 एक स्पेशल क़ानून है जो ख़ास तौर से रेलवे एवं उपभोक्ता के बीच के क्लेम वाले किसी भी शिकायत का निपटारा करने के लिए बनाया गया है लेकिन फिर भी कंज्यूमर फोरम उपभोक्ता अधिनियम 1986 के सेक्शन 3 के तहत एक  "अतिरिक्त उपचार" होने  के नाते रेलवे से सम्बंधित शिकायत सुनती है, लेकिन दूसरी तरफ कहा जाता है कि सूचना अधिकार अधिनियम 2005 एक स्पेशल क़ानून है जिसपर उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 जैसे साधारण क़ानून के "अतिरिक्त उपचार" का प्रावधान लागू नहीं किया जा सकता।        
3.     राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग के फुल बेंच (5 मेंबर बेंच) ने 26 सितम्बर 2001 को कलावती के केस में साफ़ कर दिया कि कंज्यूमर फोरम कोर्ट नहीं है बल्कि ये अन्य अधिनियम (उपभोक्ता अधिनियम 1986) के तहत बनाया गया "अन्य अधिकारी" की श्रेणी में आता है। बावजूद इसके निचली फोरम एवं कमीशन अपने को कोर्ट बताकर सूचना अधिकार से सम्बंधित शिकायत ख़ारिज कर रहे है।
4.     सुप्रीम कोर्ट ने 17 जनवरी 2003 को विश्वभारती के केस में उपभोक्ता अधिनियम को अवैध होने से बचाया था सिर्फ इसी बेस पर की कंज्यूमर फोरम कोर्ट नहीं बल्कि एक ट्रिब्यूनल है और हमारे देश की संसद इस तरह के अनेकों ट्रिब्यूनल बना सकते है उनके इस संविधानिक अधिकार को चुनौती नहीं दी जा सकती है।  वस्तुतः इस केस में उपभोक्ता अधिनियम 1986 की वैधता को चुनौती दी गई थी और कहा गया था कि हमारे देश के संविधान द्वारा स्थापित त्रिस्तरीय कोर्ट सिस्टम के समानांतर में त्रिस्तरीय कंज्यूमर कोर्ट अवैध है। बावजूद इसके निचली फोरम एवं उपभोक्ता कमीशन अपने को कोर्ट बताकर सूचना अधिकार से सम्बंधित शिकायत ख़ारिज कर रहे है।

क्या है "कोर्ट" एवं "ट्रिब्यूनल" में मूलभूत अंतर :

1.    कोर्ट की स्थापना संविधान की भावना एवं प्रस्ताव के अनुरूप होता है जबकि ट्रिब्यूनल का गठन संसद द्वारा पास किये गए किसी कानून के द्वारा।  कंज्यूमर फोरम एवं कमीशन का गठन उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के तहत हुआ है।
2.    कोर्ट में सिर्फ जज (न्यायिक मेंबर) होते है जबकि ट्रिब्यूनल में जज एवं एक्सपर्ट्स दोनों हो सकते है।
3.    कोर्ट स्टेट के असीमित अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए केस निबटाते है, वो क़ानून में अस्पष्टता की स्थिति में स्टेट के अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए उसकी ब्याख्या करते है,  लेकिन ट्रिब्यूनल सिर्फ उसी अधिकारों का उपयोग करता है जो उसे सम्बंधित कानून से मिला है जिसके तहत उसका गठन हुआ है। ट्रिब्यूनल क़ानून से बाहर जाकर काम नहीं कर सकता।
4.    कोर्ट में कामकाज सीपीसी, आईपीसी एवं एविडेंस एक्ट के मुताबिक होता है जबकि ट्रिब्यूनल का कामकाज उनके द्वारा सम्बंधित क़ानून के तहत बनाये गए रूल एवं रेगुलेशन के मुताबिक चलता है।  तभी तो कहा जाता है की सभी कोर्ट ट्रिब्यूनल हो सकते है लेकिन सभी ट्रिब्यूनल कोर्ट नहीं हो सकते।

"सूचित होने का अधिकार" हमारा उपभोक्ता अधिकार :
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 में विधि निर्माताओं ने हम नागरिकों को सेक्शन 6 के तहत "सूचित होने का अधिकार" दिया गया है, लेकिन विधि निर्माताओं को इसका आभास हो गया था कि आने वाले समय में आमजन सूचित नहीं हो सकता है क्योंकि अधिकारीगण जब सूचित करेंगे तभी तो आमजन सूचित होंगे।  इस स्थिति से निपटने के लिए हमारे विधि निर्माताओं ने आमजन को सूचना मांगने का हक़ दिया और सेक्शन 2 में वर्णित "सेवा" की परिभाषा में बैंकिंग, बीमा, परिवहन, हाउसिंग आदि आदि के साथ "खबर या सूचना का संग्रहण या इसे मुहैया कराना" को शामिल कर दिया ताकि आमजन उपरोक्त सेवा या सुविधा किसी भी प्रचलित क़ानून के तहत ले सकता है एवं किसी भी प्रकार के खामी की स्थिति में उपभोक्ता क़ानून के तहत शिकायत भी दर्ज करा सकता है और अतिरिक्त उपचार के रूप में वांछित सुविधा के साथ हर्जाना भी मांग सकता है। हमारे विधि निर्माताओं ने तो अपना काम कर दिया लेकिन अब जब बारी आई उन अधिकारियों की जिनके ऊपर उपरोक्त अधिकारों को सुनिश्चित करने की जिम्मेवारी है तो वे इसे आमजन को देने में गुरेज कर रहे है।   
भारतीय न्याय प्रणाली के बारे में अक्सर कहा जाता है कि न्याय देने वाले अगर न्याय देने पर उतारू हो जाते है तो विदेशों में प्रचलित कानून का भी हवाला देते हुए न्याय कर देते हैं लेकिन अगर न्याय करने की इच्छा नही हो तो अपने देश के कानून की किताबो में लिखे शब्द को भी दरकिनार कर देते है।
सूचना चाहने वाले आमजन बेबस है, इन्तजार करने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं है। कभी न कभी तो सच्चाई की जीत होगी बस यही उम्मीद लगाए हुए है।  देखिये कब तक ये उम्मीद पूरी होती है।

 
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