संजय कुमार मिश्रा:
नीति आयोग के उपाध्यक्ष सुमन बेरी ने कुछ राज्यों द्वारा पुरानी पेंशन योजना (OPS) को पुन: शुरू करने पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा कि इससे ऐसे समय में भविष्य के करदाताओं पर बोझ पड़ेगा जब भारत को राजकोषीय स्थिति को बेहतर करने पर ध्यान केंद्रित करने और सतत विकास को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। बेरी ने एक साक्षात्कार में पूंजीगत व्यय को बढ़ाने और राजकोषीय मजबूती के माध्यम से निजी क्षेत्र के लिए गुंजाइश बनाने की जरूरत को रेखांकित किया। उन्होंने कहा, ''पुरानी पेंशन योजना के फिर शुरू होने को लेकर मुझे थोड़ी चिंता है। मेरे खयाल से यह चिंता का विषय है क्योंकि इसका भार मौजूदा करदाताओं पर नहीं बल्कि भावी करदाताओं और नागरिकों पर पड़ेगा।”
ओपीएस के तहत पेंशन की पूरी राशि सरकार देती थी, इस योजना को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने एक अप्रैल, 2004 से बंद कर दिया था। नई पेंशन योजना के तहत कर्मचारी अपने मूल वेतन का दस प्रतिशत हिस्सा पेंशन के लिए देते हैं जबकि राज्य सरकार इसमें 14 प्रतिशत का योगदान देती है।
बेरी ने कहा, ”राजनीतिक दलों को अनुशासन का पालन करना चाहिए क्योंकि हम सभी भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि के साझा लक्ष्य के लिए काम कर रहे हैं ताकि भारत एक विकसित अर्थव्यवस्था बन सके। दीर्घकालिक लक्ष्यों के लिए अल्पकालिक लक्ष्यों को संतुलित करना आवश्यक है।”
ज्ञात हो कि कांग्रेस शासित राज्य राजस्थान और छत्तीसगढ़ ने ओपीएस के क्रियान्वयन का निर्णय पहले ही ले लिया है जबकि भाजपा शासित हिमाचल प्रदेश ने वादा किया है कि सत्ता में आने पर वह इस योजना को बहाल करेगी। झारखंड ने ओपीएस शुरू करने का फैसला किया और आम आदमी पार्टी शासित पंजाब ने भी इस योजना के पुन: क्रियान्वयन को हाल में मंजूरी दी। हालांकि, उन्होंने बताया कि राज्यों के कर्ज को रिजर्व बैंक ने प्रभावी तरीके से सीमित कर दिया है इसलिए राज्यों की वजह से आर्थिक स्थिरता को कोई खतरा नहीं है। बेरी ने कहा, ”अगले दो वर्ष में वित्तीय मजबूती के जरिये हमें निजी क्षेत्र के लिए जगह बनाना शुरू करना होगा।”
ये बात सही है कि पुरानी पेंशन योजना को लागू करने से अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ेगा लेकिन इस बोझ की घटाने के लिए सिर्फ कर्मचारियों की ही बलि क्यों? क्या राजनेता और राजनीतिक दल जो अपने लिए अनेकानेक मुफ्त सुविधाऐं, बेतहाशा वेतन वृद्धि एवं मल्टिपल पेंशन के बारे में कुछ नही बोलना उनके दोहरे मानसिकता को दिखलाता है। यहां यह बताना भी सही होगा की ये वही भारत के नीति आयोग है जिसने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने एक हलफनामे में गरीबी रेखा की जो नई परिभाषा तय की है, उसमें कहा गया है कि दिल्ली, मुंबई, चेन्नई बंगलौर आदि शहरों में चार लोगों का एक परिवार अगर महीने में 3860 रूपये से ज्यादा खर्च करता है तो उसे गरीब नही माना जा सकता। खुद नीति आयोग भारत की अर्थव्यवस्था पर एक बोझ है जिसे बेतहाशा सरकारी खर्चे और राजनेताओं के सुख सुविधा के लिए खर्च हो रहे फंड नही दिखते लेकिन आम जनता, कर्मचारियों एवं फौजियों के पेंशन के लिए अर्थव्यवस्था की चिंता हो रही है और इसे रेवड़ी का नाम दिया जा रहा है, जबकि किसान सम्मान निधि, श्रम कार्ड धारकों को चुनाव के पहले यूपी में दिए गए रेवड़ी के समय वो चुप रहते हैं, निश्चित ही ये चिंता दोहरी मानसिकता से भरी पूरी है जो कि सिर्फ और सिर्फ दिखावे के लिए ही है।