— संतोष गुप्ता
देश का किसान पिछले कई महीनों से परेशान है। दुनिया का पेट भरने वाला भूमिपुत्र भटक रहा है और सरकारें हैं कि हाथी की मस्त चाल चले जा रही हैं। गोया उन्हें भूमि-पुत्र की परेशानी से कोई सरोकार ही ना हो। आखिर यह कैसा लोकतंत्र है? मतदाता 'राजा' होकर भी भिखारी बन गया और प्रतिनिधि नौकर होकर भी राजे बन बैठे। राजा ही नहीं निरकुंश शासक बन बैठे। जून महीने की कड़कती धूप और दिसंबर- जनवरी की हाड कंपकंपाती सर्दी में उसे निरंतर काम करना ही पड़ता है। बदन झुलसाती धूप हो या सर्द महीनों की बारिश, अक्सर उसकी परेशानी बढ़ाने ही आती हैं।
पंजाब-हरियाणा में किसान संघर्ष इस समय अपने चरम पर पहुंच चुका है और हरियाणा सरकार तानाशाही की सभी सीमाएं पार कर चुकी है। ऐसा कतई नहीं कि सरकारें किसान की वास्तविक हालत से बेखबर हों। उसकी तंग- परेशान दिनचर्या, कर्ज की मार, आढ़ती का ब्याज पर ब्याज, खाद व बीजों का निरंतर महंगा होता चला जाना, बिजली व डीजल की कीमत में निरंतर हो रही वृद्धि और सबसे बड़ी सरकारों की बेरुखी उसकी इस परेशान जीवनशैली का एकमात्र सबब हैं।
दिल्ली पहुंचने से पहले किसान:
नेताओं को आनन-फानन में गिरफ्तार कर लेना सरकार की दमनकारी नीतियों की जीती जागती मिसाल हैं।
घर में बच्चा रोता है तो माता-पिता उसको रोने का कारण पूछते हैं और उसकी परेशानी का समाधान भी ढूंढते हैं। गलत जिद करने पर डांटते भी हैं लेकिन फिर भी ना माने तो उसे समझाने का कोई और कारगर उपाय ढूंढते हैं ताकि उसकी ऊर्जा नष्ट ना हो और वह परिवार के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान देता रहे। समझदार माता-पिता बुरी संगत में पड़े बच्चे को कोई मीठा- सा सबक सिखा कर जीवन जीने की प्रेरणा भी देते हैं।
अब बात धरतीपुत्र की। यूं तो किसान प्रत्येक सरकारों का लाडला बच्चा ही माना जाता रहा है। हरित क्रांति के कर्णधार इस किसान ने ही दिन -रात मेहनत करके देश को ना सिर्फ अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बनाया बल्कि देश की सीमाओं की रक्षा हेतु बेटों को कुर्बान हो जाने वाला जज्बा भी दिया। जून महीने की कड़कती धूप और दिसंबर- जनवरी की हाड कंपकंपाती सर्दी में उसे निरंतर काम करना ही पड़ता है। बदन झुलसाती धूप हो या सर्द महीनों की बारिश, अक्सर उसकी परेशानी बढ़ाने ही आती हैं। खून-पसीना एक करके जिस बंजर भूमि को अनाज उगाने लायक बनाया, भला उसको पूंजीपतियों के हाथ में कैसे सौंप दें? बस इतनी- सी बात भी हमारे नेताओं की समझ में नहीं आ रही। आखिर क्यों उन्होंने सौतेली माता या सौतेले पिता वाला रुख अपना रखा है?
हरियाणा के पुलिस प्रमुख स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि पंजाब के किसानों को हरियाणा से होकर दिल्ली नहीं जाने दिया जाएगा। उन्होंने पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए बताया कि किसानों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए 2000 पुलिस कर्मियों व अधिकारियों को लगाया गया है। इतनी अधिक पुलिस फोर्स लगाए जाने की जरूरत संबंधी पूछे गए एक सवाल के जवाब में उन्होंने आशंका जताई कि हरियाणा में किसान तोड़फोड़ कर सकते हैं। एक संवाददाता ने जब पूछा कि पिछले 2 महीने से किसान पंजाब में धरने- प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन किसी तरह की कोई तोड़- फोड़ उनकी तरफ से नहीं की गई तो भला हरियाणा में ऐसी आशंका क्यों जताई जा रही है? इस सवाल के जवाब में पुलिस प्रमुख खुद भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाए। इधर राज्य के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर किसानों को "दिल्ली चलो" के आह्वान को वापस लेने की बार-बार अपील कर रहे हैं। उन्होंने मीडिया कर्मियों के सामने एक बार फिर अपनी बात दोहराई कि मंडियों का काम बदस्तूर जारी रहेगा और एमएसपी वर्तमान समय की तरह भविष्य में भी कायम रहेगी। लेकिन यहां सोलह आने सच वाला सवाल यह है कि अगर मुख्यमंत्री खट्टर, प्रधानमंत्री मोदी या भाजपा नेताओं की इन मौखिक बातों का किसानों को यकीन होता तो इतने महीनों तक भला वे लोग संघर्ष क्यों करते रहते? यदि इन लोगों की कथनी और करनी में फर्क ना होता तो देश को इस संकट से जूझना ही क्यों पड़ता? प्रत्येक नागरिक के खाते में 15 लाख रुपए जमा करवाने का सपना दिखाकर मोदी प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन लंबे इंतजार के बाद भी जब लोगों के खाते में वो रुपए ना आए तो मीडिया में सुगबुगाहट होनी शुरू हुई। जब यह बात बार-बार पूछी जाने लगी तो सरकार की तरफ से गृह मंत्री अमित शाह को इस बारे में स्पष्टीकरण देने के लिए आगे किया गया। अमित शाह ने निसंकोच कह दिया कि 15 लाख रुपए खाते में आने वाला वादा तो मात्र चुनावी जुमला था। अब किसान इन जुमलों का अंदरूनी सच चूंकि जान चुके हैं अतः वे सरकार से यह बात लिखित रूप में लेना चाहते हैं ताकि फिर कोई शासक उसे चुनावी जुमला कहकर मूर्ख ना बना सके।