मैं बच्चा सा हो गया हूं
जबसे
बच्चे बड़े हो गए हैं
अपने फैंसले खुद से
करने लग गए हैं
अब करने लग गया हूं खुद से बातें
जबसे यौवन के दिन बीत गए है
उड़ रहा हूं सूखे पत्तों की मानिंद
मुसाफिर बनकर
इस सफ़र से तंग हो गया हूं
हवा के रुख में उलझकर
बेसफ़र, बेखबर सा हो गया हूं
बिन वजह जाग उठता हूं रातों को
बे—मोल हो गए जज्बातों को
अखरता है अब ये रूखापन
तन्हा सी है जिंदगी
बस! जरा थकने लग गया हूं
यूं तो की होगी हमने हजारों बातें
बातों में छिपी वो मधुर मुलाकातें
दर्द ऐसा चुभा सीने में
अब मैं लिखने भी लग गया हूं
बचपन में थे सच्चे शहंशाह
मां-बाप का साथ जब से छूटा
तब से गरीब सा जिया गया हूं
झूठी शहंशाही रास नहीं आती
फकीरी के आलम में खो गया हूं
नंगे पैर गरीब के कहीं
घायल न हो जाएं
यही सोच कर कांच के टुकड़े
उठाता जा रहा हूं
— रोशन