— संतोष गुप्ता
किसान सड़कों पर हैं, घर-परिवार, काम- धंधा छोड़कर कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। उधर सरकारें हैं जो गूंगी, बहरी, अंधी होने का अभिनय कर रही हैं। ठीक उस प्रॉपर्टी डीलर की तरह जो दोनों पार्टियों से अपने कमीशन से कई गुणा ज्यादा पैसा ऐंठ कर हजम कर चुका होता है। जायदाद खरीदने व बेचने वाली दोनों पार्टियां उसे डेढ़ - डेढ़ किलो की गालियां दे रही होती हैं किंतु उस पर कोई असर नहीं होता क्योंकि पैसा तो वह हजम कर ही चुका है, अब गालियां भी उसे हजम करने ही पड़ेंगी। चाहे बदहजमी ही क्यों ना हो जाए।
हरियाणा प्रदेश में जैसे ही किसान आंदोलन शुरू हुए, प्रदेश सरकार ने अपने आकाओं को खुश करने हेतु खूब सख्ती दिखाने का प्रयास किया। एक दो जगह आंदोलनकारियों पर जमकर लाठीचार्ज भी किया गया। जब लाठीचार्ज की घटना ने तूल पकड़ा तो प्रदेश के गृहमंत्री साफ मुकर गए कि कहीं कोई लाठीचार्ज नहीं हुआ। चूंकि कैमरे की आंख में अभी शर्म- हया बाकी है, उसने सारा सच उगल दिया। जब संबंधित वीडियोस बड़े स्तर पर वायरल हुई तो जन आक्रोश के चलते मंत्रियों को यू- टर्न लेना पड़ा। भोजन जो सबके लिए महत्वपूर्ण है। अनाज पैदा करने वाला सदियों से वंचित वर्ग की श्रेणी में क्यों है? हम और हमारी सरकारें इतनी एहसान -फरामोश हैं कि वे जिनका उगाया अनाज खाते हैं, उन्हीं को अमीरों का गुलाम बनाने पर तुले हैं।
गर्मी हो या सर्दी, अल-सुबह उठकर खेतों में जाना, चिलचिलाती धूप और कंप कंपाती सर्दी में जब शहरी लोग हीटर ऑन करके रजाई में दुबके होते हैं, पत्नी को तेज गर्मी या सर्दी में खाना बनाने का झंझट न करना पड़े, अतः ऑर्डर देकर होटल, रेस्टोरेंट से खाना तक मंगवा रहे होते हैं, उस समय गांव की औरतें अपनी गाय-भैंसों का गोबर उठाने व उन्हें चारा इत्यादि देने में व्यस्त होती है, आखिर किस लिए? ताकि सुबह आपके घर समय से दूध पहुंचाया जा सके। सर्द रातों में खेतों को पानी देना आसान काम नहीं है। इस सारी मशक्कत में धरतीपुत्र कब बीमार होता है, कब मर जाता है, इतना सोचने का समय भी उनके पास नहीं होता। अब सवाल उठता है कि मिट्टी के साथ मिट्टी होने वाला यह इंसान क्या सम्मान भरी जिंदगी का हकदार नहीं? यदि हां तो क्यों उसे धरने - प्रदर्शन करके अपनी पीड़ा सरेआम दिखानी पड़ रही है? यदि नहीं तो भला क्यों नहीं? झूठे- मनगढ़ंत किरदार निभाकर या क्रिकेट के मैच खेल कर लोगों का मनोरंजन करने वालों की कीमत करोड़ों - अरबों की हो गई जब कि जीवन का आधार अनाज उगाने वाला कर्जे में डूब कर खुदकुशी करने को मजबूर है। आखिर यह कैसी विडंबना है? तरंगों के जरिए दुनिया का जीवन आसान और आरामदायक जरूर हुआ है किंतु क्या इन तरंगों से पेट की भूख किसी तरह शांत की जा सकती है? अंबानी, अडानी, टाटा, बिरला या दुनिया भर के दूसरे पूंजीपति अपने भोजन के लिए क्या इस धरती- पुत्र पर पूरी तरह से निर्भर नहीं है?
जब जमीन बेकार थी, बंजर थी, किसी काम की नहीं थी तो किसानों और मजदूरों ने अपना खून-पसीना एक करके उसे अनाज उगाने लायक बनाया। अब जब उसने उस बंजर जमीन को सोना उगलने के काबिल बना लिया तो सरकारें उनसे जमीन छीनने के मंसूबे बनाने लगी हैं। भला क्यों? सिर्फ इसीलिए कि पूंजीपतियों का सहारा लेकर चुनाव जीता और अब उन्हें जमीन के मालिक बनाने की साजिश पर दृढ़ता और गंभीरता पूर्वक कार्य किया जाना जरूरी है।
यह कैसी व्यवस्था है हमारी? सिगरेट, शराब, गुटका बनाने वाले लोग अरबों-खरबों में खेलते हैं। उन पर कहीं कोई अंकुश नहीं। नदियों का पानी बोतलों में भरकर बेचने वाले रोज करोड़ों कमाते हैं। किंतु भोजन जो सबके लिए महत्वपूर्ण है। उस का प्रबंध करने वाला, अनाज पैदा करने वाला सदियों से वंचित वर्ग की श्रेणी में क्यों है? राष्ट्र पर जब भी कभी कोई संकट आता है तो यह अपनी जान की बाजी लगाने से भी नहीं चूकता। किंतु हम और हमारी सरकारें इतनी एहसान -फरामोश हैं कि वे जिनका उगाया अनाज खाते हैं, उन्हीं को अमीरों का गुलाम बनाने पर तुले हैं। वो अमीर जिनके लिए सब कुछ धन- दौलत है, चाहे यह धन इमानदारी से कमाया जाए या बेईमानी से।
मोदी सरकार द्वारा पास किए गए कृषि कानूनों ने सिर्फ किसानों या मजदूरों के जीवन को ही प्रभावित नहीं किया बल्कि देश के प्रत्येक नागरिक को पूंजीपतियों का गुलाम बनाने का नींव पत्थर भी रख दिया। इसके दूरगामी प्रभावों को सरकार में बैठे लोग या तो समझ नहीं पा रहे या समझते हुए भी सिर्फ स्वार्थवश उन्हें अनदेखा करने की घिनौनी चालें चल रहे हैं। जिन दीयों में यह लोग इस समय आवश्यकता से अधिक तेल डाल रहे हैं, उन्हीं दीयों ने उनके घरों या उनकी आने वाली पीढ़ियों के जीवन से प्रकाश पूरी तरह से छीन लेना है। भारतीय इतिहास में जैसे "गुप्त वंश" के शासन काल को 'सुनहरी युग' कहा जाता है, संभव है, भाजपा शासन को "काला युग" या "अंधेर युग" की संज्ञा दे दी जाए।