संजय कुमार मिश्रा:
जबसे सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की निष्पक्ष व पारदर्शी तरीके से नियुक्तियों के लिए एक स्वतंत्र चयन पैनल की मांग करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की है तो केंद्र सरकार सकते में है।
ज्ञात हो कि जहां एक तरफ पंजाब कैडर के आईएएस अधिकारी अरुण गोयल ने 18 नवंबर को उद्योग सचिव के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली और 19 नवंबर को चुनाव आयुक्त के पद पर उनकी नियुक्ति हो गई।
वहीं दूसरी तरफ हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति से संबंधित कोलेजियम की सिफारिश वाली फाईल पर सरकार को फैसला लेने में दो साल लग जाते हैं और अंततः सिर्फ दो नाम को मंजूरी देकर बाकी 20 नामों को पुनर्विचार के लिए वापस कर देते हैं।
पांच जजों वाली संविधान पीठ ने अरुण गोयल की नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल खड़े करते हुए केंद्र सरकार का पक्ष रख रहे अटार्नी जनरल आर वेंकटरमणी से पूछा, ‘चुनाव आयोग ने पद की रिक्ति की घोषाणा 15 मई को की और अरुण गोयल की चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्ति वाली फाइल को 24 घंटे के अंदर ‘बिजली की गति’ से मंजूरी दी गई। यह कैसा मूल्यांकन है? पीठ ने कहा, हम अरुण गोयल की साख पर सवाल नहीं उठा रहे हैं, बल्कि उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया पर सवाल उठा रहे हैं। एक ही दिन में फाइल को क्लीयरेंस कैसे मिल गई? यह पद 15 मई से खाली था। आप बताइए कि 15 मई से 18 नवंबर के बीच क्या क्या हुआ।
दरअसल भारत का चुनाव आयोग संविधान के तहत बनाया गया एक स्वतंत्र निकाय है, लेकिन पिछले करीब एक दशक से इसकी स्वतंत्रता पर सवाल उठ रहे हैं। विपक्षी पार्टी आयोग पर निष्पक्ष नही होने के आरोप लगा रहे हैं, और ऐसी परिस्थिति के जन्मदाता भी खुद चुनाव आयोग ही है।
याद करिए साल 2019 का आम चुनाव, जिसमें चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के लिए कांग्रेस, टीएमसी सहित कई दलों पर चुनाव आयोग ने कार्रवाई की, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ 5 बार आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायत को ख़ारिज कर दिया और क्लीन चिट दे दी। हालांकि तीन आयुक्त में एक आयुक्त लवासा ने प्रधानमंत्री मोदी को दी जा रही क्लीनचिट पर आपत्ती उठाई, जिसकी कीमत उन्हें अदा करनी पड़ी, उनकी पत्नी के खिलाफ गबन और आय से अधिक संपत्ति का आरोप लगा कर जांच बिठा दी गई।
अभी 2022 में हिमाचल प्रदेश चुनाव में 14 नवंबर की चुनाव की अधिसूचना जारी हो गई लेकिन चुनाव आचार संहिता 17 नवंबर से लागू की गई क्योंकि 16 नवंबर को प्रधानमंत्री मोदी की हिमाचल रैली प्रस्तावित थी जिसमें सरकारी मशीनरी के उपयोग में कोई अड़चन ना आ जाए। यही नहीं हिमाचल चुनाव के साथ ही गुजरात चुनाव भी प्रस्तावित थी लेकिन गुजरात चुनाव को आगे टाल दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हर सरकार अपनी हां में हां मिलाने वाले व्यक्ति को मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्त नियुक्त करती है, जो कि नही होना चाहिए। देश को इस समय टीएन शेषन जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त की ज़रूरत है। कोर्ट ने कहा, "ज़मीनी स्थिति ख़तरनाक है। अब तक कई सीईसी रहे हैं, मगर टीएन शेषन जैसा कोई कभी-कभार ही होता है। हम नहीं चाहते कि कोई उन्हें ध्वस्त करे। तीन लोगों (सीईसी और दो चुनाव आयुक्तों) के नाज़ुक कंधों पर बड़ी शक्ति निहित है। हमें सीईसी के पद के लिए सबसे अच्छा व्यक्ति खोजना होगा।"
सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त कड़े रुख से केंद्र सरकार सकते में है। अब सवाल ये उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के इस तरह की सुनवाई से न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के बीच तकरार बढ़ेगा?
ध्यान देने योग्य है कि लोकतंत्र में सरकार के तीन अंग है जिसमे एक अंग विधायिका तो पूरी तरह से सरकार यानी कार्यपालिका के नियंत्रण में है और सभी विपक्षी दल पूरी तरह से शक्ति संतुलन बनाने में नाकाम साबित हो रहे हैं कारण है, ई डी, सीबीआई, इनकम टैक्स डिपार्टमेंट जिसका डर दिखाकर सभी विपक्षी पार्टियों का मुंह बंद किया हुआ है।
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाला मीडिया भी पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में है, जो पत्रकार सरकार से सवाल पूछेगा वो देशद्रोही बनाकर जेल में डाल दिया जाएगा, कितनों को तो जेल कर भी दिया गया है, ऐसे में सत्ता और भी निरंकुश ना हो जाए, इसलिए सत्ता संतुलन के लिए सुप्रीम कोर्ट का आगे आना एक सही कदम ही माना जा सकता है क्योंकि आज के समय में कोर्ट ही लोगों की एकमात्र उम्मीद है।