— शिखा शर्मा
कल्पना से जब परे हो जाते हैं
तब स्वप्न और भी सुनहरे हो जाते हैं
नींद में आँखें मीचते, मुस्कुराते
दूर कहीं झरने में नहाते
कभी टिम-टिम तारों से बतियाते
कभी चांद की यात्रा पर निकल जाते
चलते हैं कभी आसमानों पर
पंख लगाकर बैठ जाते हैं कभी धरा पर
अचेत मुद्रा में पड़ी है काया
लेकिन
ब्रह्मांड घूम कर आते हैं
स्वप्न ऐसी अद्भुत दुनिया में ले जाते हैं
काली रात में दिन का उजाला दिखता है
चांद सूरज से भी उज्जवल हो जाता है
एक दृश्य में हंसते
दूसरे में रोने का मन हो आता है
नैन भी नीर बहाने लग जाते हैं
सिसक जाते हैं तब होंठ चेतन में
तो कभी
नींद तोड़कर बैठ जाते हैं
स्वप्न हमें सपनों में भी डराते हैं
देखते हैं कभी स्वयं को बादशाह
छप्पन कोटि के भोग लगाते हैं
कभी फ़कीर बन कर
झोली फैलाने लग जाते हैं
कल्पना से जब परे हो जाते हैं
तब स्वप्न और भी सुनहरे हो जाते हैं