— रोशन
मत तोला करो
इबादत को अपने हिसाब से
उसकी रहमतों से
अक्सर तराजू टूट जाते हैं
छा जाती है चुप्पियां
गुनाह यदि खुद के हों
बात दूजे की हो तो
शोर बहुत मच जाते हैं
देख कर मुस्कराने
और
मुस्करा कर देखने में
अंतर बड़ा भारी है
शब्दों और नज़रों के
मायने बदल जाते हैं
नग्नता दो ही जगह
शुशोभित लगती है
हो अबोध बालक
या फिर जहां
महावीर पाए जाते हैं
फैशन की अंधी दौड़ में
फिर क्यूं मातृत्व शक्तियां
अर्धनग्नता में समाए जाते हैं
जो जरूरी है रिश्तों के बीच
शयनकक्ष के
दर—ओ—दिवालों के बीच
वे दृश्य
बीच बाजार यूं क्यूं
दिखाए जाते है
ये तो तय है कि
जो देते हैं वही
लौट कर आता है
फिर ये परपंच
क्यूं रचाए जाते हैं।