डॉ नीलम महेन्द्र
सनातन संस्कृति की महानता है कि इसमें अत्यंत गहरे और गूढ़ विषयों को जिनके पीछे बहुत गहरा विज्ञान छिपा है उन्हें बेहद सरलता के साथ एक साधारण मनुष्य के सामने प्रस्तुत किया जाता है।
नवरात्र मात्र उपवास और कन्याभोज नहीं है
चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा यानी नव संवत्सर का आरम्भ। ऐसा नववर्ष जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि में एक नई ऊर्जा का संचार हो रहा होता है। एक तरफ पेड़ पौधों में नई पत्तियां और फूल खिल रहे होते हैं तो मौसम भी करवट बदल रहा होता है। शीत ऋतु जा रही होती है, ग्रीष्म ऋतु आ रही होती है और कोयल की मनमोहक कूक वातावरण में रस घोल रही होती है। देखा जाए तो प्रकृति हर ओर से नवीनता और बदलाव का संदेश दे रही होती है।
सनातन संस्कृति में यह समय शक्ति की आराधना का होता है जिसे नवरात्र के रूप में मनाया जाता है। नौ दिनों तक देवी माँ के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है। लोग अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार इन दिनों उपवास रखते हैं और कन्याभोज के साथ माता को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं।
दरअसल यह सनातन संस्कृति की महानता है कि इसमें अत्यंत गहरे और गूढ़ विषयों को जिनके पीछे बहुत गहरा विज्ञान छिपा है उन्हें बेहद सरलता के साथ एक साधारण मनुष्य के सामने प्रस्तुत किया जाता है। इसका सकारात्मक पक्ष तो यह है कि एक साधारण मनुष्य से लेकर एक बालक के लिए भी वो विषय ग्रहण करना इतना सरल हो गया कि वो उनके जीवन का उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। लेकिन इसका नकारात्मक पक्ष यह हुआ कि वो गहरे विषय हमारी दिनचर्या तक ही सीमित रह गए और उनके भाव, उनके लक्ष्य हमसे कहीं पीछे छूट गए।
नवरात्र को ही लीजिए आज यह केवल उपवास रखने और कन्याभोज कराने तक ही सीमित रह गए। इसके आध्यात्मिक वैज्ञानिक और व्यवहारिक पक्ष के विषय पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता।
वैज्ञानिक पक्ष की बात करें तो नवरात्र साल में चार बार मनाई जाती हैं, चैत्र नवरात्र, शारदीय नवरात्र और दो गुप्त नवरात्र। हर बार दो ऋतुओं के संकर काल में यानी एक ऋतु के जाने और दूसरी ऋतु के आने के पहले। आज विज्ञान के द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि ऋतु संकर के समय मानव शरीर बदलते वातावरण से तारतम्य बैठाने के लिए संघर्ष कर रहा होता है और इस दौरान उसकी पाचन शक्ति, उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता क्षीण होती है। ऐसे समय में उपवास न सिर्फ मनुष्य के पाचन तंत्र को सुधारने का काम करता है बल्कि उसे डिटॉक्स करके उसमें एक नई ऊर्जा का संचार भी करता है
इसके वैज्ञानिक पक्ष की बात करें तो नवरात्र साल में चार बार मनाई जाती हैं, चैत्र नवरात्र, शारदीय नवरात्र और दो गुप्त नवरात्र। हर बार दो ऋतुओं के संकर काल में यानी एक ऋतु के जाने और दूसरी ऋतु के आने के पहले। आज विज्ञान के द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि ऋतु संकर के समय मानव शरीर बदलते वातावरण से तारतम्य बैठाने के लिए संघर्ष कर रहा होता है और इस दौरान उसकी पाचन शक्ति, उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता क्षीण होती है। ऐसे समय में उपवास न सिर्फ मनुष्य के पाचन तंत्र को सुधारने का काम करता है बल्कि उसे डिटॉक्स करके उसमें एक नई ऊर्जा का संचार भी करता है।
किंतु महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि नवरात्र का महत्व मात्र हमारे शरीर की शक्ति एवं उसकी ऊर्जा बढ़ाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि उससे कहीं बढ़कर है। नवरात्र का समय अपनी खगोलीय घटनाओं के कारण प्रकृति का वो समय होता है जब मनुष्य अपने मानव जन्म का सर्वश्रेष्ठ लाभ ले सकता है। नवरात्र का आध्यात्मिक पक्ष यह है कि इस समय मनुष्य अपनी शारिरिक शक्तियों से ऊपर उठकर अपने मानस एवं आत्मबल का विकास कर सकता है। नौ दिनों तक व्रत एवं व्रत के नियम हमें अपनी आध्यात्मिक शक्तियों को विकसित करने में मदद करते हैं।
लेकिन वैज्ञानिक और आध्यात्मिक पक्ष से इतर नवरात्र का एक व्यवहारिक पक्ष भी है। देखा जाए तो मां के नौ रूपों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। कहा जाता है कि मां दुर्गा ने ये सभी नौ अवतार इस धरती पर अधर्म और पाप के नाश दैत्यों के विनाश तथा धर्म की स्थापना के उद्देश्य से लिए थे। तो क्यों न हम भी इस समय का उपयोग अपने भीतर के पाप और अधर्म का नाश करने के लिए करें, अपने भीतर के शत्रुओं के विनाश के लिए करें। गीता में कहा गया है कि काम क्रोध लोभ मोह अहंकार और ईर्ष्या मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं। नवरात्र के दौरान हम माँ के हर रूप से सफलता के मंत्र सीखकर अपने भीतर के इन शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। अगर हम गम्भीरता से सोचें तो पाएंगे कि मां के हर रूप का नाम उनके व्यक्तित्व को परिभाषित करते हुए हमें अनूठा संदेश देता है।
जैसे मां शैलपुत्री (यानी हिमालय की पुत्री) से शिला अर्थात चट्टान की तरह दृढ़ आत्मबल। मां ब्रह्मचारिणी (यानी ब्रह्म के समान आचरण) से अपने आचरण में अनुशासन। मां चंद्रघंटा ( इनके माथे पर चन्द्र के आकार का घण्टा है) से अपने मन को कठिन से कठिन परिस्थिति में चंद्रमा जैसा शीतल यानी ठंडा रखना। मां कुष्मांडा (कू यानी छोटा ऊष्मा यानी ऊर्जा) से स्वयं को सदैव सकारात्मक ऊर्जा से भरे रखना। मां स्कंदमाता ( इनकी गोद में बालक कार्तिकेय हैं ) से अपने भीतर करुणा ममता प्रेम और संवेदनशीलता जैसे गुणों को हमेशा बना कर रखना। मां कात्यायनी (स्वास्थ्य और चिकित्सा की देवी) से स्वास्थ्य की महत्ता क्योंकि स्वस्थ रहकर ही अपने लक्ष्यों को हासिल किया जा सकता है। माँ कालरात्रि ( महाशक्तिशाली और अपराजेय दैत्यों का नाश करने वाली) से जुनून की हद तक लक्ष्य हासिल करने का जज्बा क्योंकि इसके बिना कठिन लक्ष्य प्राप्त करना असंभव है। मां महागौरी (ये गौर वर्ण की हैं) से जीवन के हर कदम पर अपना आचरण चरित्र और चित को उज्ज्वल एवं स्वच्छ रखना ताकि कहीं कोई दाग लगने की गुंजाइश न हो। और अंत में मां सिध्दरात्री (सफलता देने वाली) जब हम नवरात्र में माँ के इन आठ रूपों की सच्चे मन से आराधना करते हैं तो मां सिध्दरात्री
सफलता देती हैं। इसी प्रकार जब हम नवरात्र के व्यवहारिक पक्ष को अपने जीवन में उतार कर इन आठ सूत्रों को अपने आचरण में अनाएँगे तो निसन्देह हमें सफलता की सिद्धि प्राप्त होगी।
तो इस बार नवरात्र को मात्र उपवास एवं कन्याभोज तक सीमित न रखें बल्कि इस बार नवरात्र में शरीर के साथ साथ मन और आत्मा को भी शुद्ध एवं डिटॉक्स करके अपने जीवन में नई ऊर्जा नई शक्ति को महसूस करें।
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।
(लेखिका वरिष्ठ स्तम्भकार हैं)